________________
अनु०३]
शाङ्करमाप्यार्थ
‘स मानसीन आत्मा" इति च वेद एकरूप हो जाते हैं वह मनरूप श्रुतिनित्यात्मनैकत्वं ब्रुवत्यगा-/
उपाधिमें स्थित आत्मा है" यह नित्य
आत्माके साथ ऋगादिका एकत्व दीनां नित्यत्वे समञ्जसा स्यात् । बतलानेवाली श्रुति भी उनका "ऋचो अक्षरे परमे व्योमत्य- | नित्यत्व सिद्ध होनेपर ही सार्थक
| हो सकती है । इस सम्बन्धमें सिन्देवा अधि विश्वे निपेदुः" "जिसमें सम्पूर्ण देव स्थित हैं उस (श्वे० उ०४।८) इति च अक्षर और परब्रह्मरूप आकाशमें
। ही ऋचाएँ तादात्म्यभावसे व्यवस्थित मन्त्रवर्णः।
हैं" ऐसा मन्त्रवर्ण भी है। आदेशोऽत्र ब्राह्मणम; अति- 'आदेश आत्मा' इस वाक्यमें
| 'आदेश' शब्द ब्राह्मणका वाचक देष्टव्यविशेपानतिदिशतीति । अथ- है; क्योंकि वेदोका ब्राह्मणभाग ही
कर्तव्यविशेपोंका आदेश (उपदेश) वाङ्गिरसा च दृष्टा मन्त्रा ब्राह्मणं देता है । अथर्वाङ्गिरस ऋषिके
साक्षात्कार किये हुए मन्त्र और च शान्तिकपौष्टिकादिप्रतिष्ठा
ब्राह्मण ही पुच्छ-प्रतिष्ठा हैं, क्योंकि हेतुकर्मप्रधानत्वात्पुच्छं प्रतिष्ठा ।
उनमें शान्ति और पुष्टिकी स्थितिके
हेतुभूत कर्मोकी प्रधानता है। तदप्येप श्लोको भवति मनो- | पूर्ववत् इस विषयमें ही-मनोमय
आत्माका प्रकाश करनेवाला ही मयात्मप्रकाशकः पूर्ववत् ॥१॥ यह श्लोक है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां तृतीयोऽनुवाकः ॥३॥