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अनु०९]
शाङ्करभाष्यार्थ
तव्याः । अग्निहोत्रंच होतव्यम्।। हैं ] । अग्नियोंका आधान करना अतिथयश्च पूज्याः । मानुपमिति चाहिये। अग्निहोत्र होम करने योग्य
है। अतिथियोंका पूजन करना लाकिका सव्यवहार चचाहिये । मानुष यानी लौकिक यथाप्राप्तमनुष्टेयम् । प्रजा चोत्पा- व्यवहार; उसका भी यथाप्राप्त द्या । प्रजनश्च प्रजननमृतौ | अनुष्ठान करना चाहिये । प्रजा भार्यागमनमित्यर्थः । प्रजाति उत्पन्न करनी चाहिये । प्रजन
प्रजनन--ऋतुकालमें भार्यागमन और पोत्रोत्पत्तिः पुत्रो निवेशयितव्य प्रजाति-पौत्रोत्पत्ति अर्थात् पुत्रको इत्येतत् ।
स्त्रीपरिग्रह कराना चाहिये। सबरतैः कर्मभिर्युक्तस्यापि इन सब कर्मोंसे युक्त पुरुषको, खाध्यायप्रवचन- स्वाध्यायप्रवचने भी स्वाध्याय और प्रवचनका यत्नसहयोगकारणन् यत्नतोऽनयेडव- पूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये-इसी
लिये इन सबके साथ खाध्याय और मर्थं सर्वेण सह स्वाध्यायप्रवचन- प्रवचनको ग्रहण किया गया है । ग्रहणम् । स्वाध्यायाधीनं ह्यर्थ- | खाध्यायके अधीन ही अर्थज्ञान है aan
और अर्थज्ञानके अधीन ही परमश्रेय
है, तथा प्रवचन उसकी अविस्मृति श्रेयः प्रवचनं च तदविस्मरणार्थ और धर्मकी वृद्धिके लिये है; इसलिये धर्मप्रवृद्धयर्थं च । अतः स्वाध्या- खाध्याय और प्रवचनमें आदर यप्रवचनयोरादरः कार्यः। (श्रद्धा ) रखना चाहिये ।
सत्यमिति सत्यमेवानुष्ठातव्य- सत्य अर्थात् सत्य ही अनुष्ठान सत्यादिप्राधान्ये मिति सत्यमेव किये जाने योग्य है--ऐसा सत्यवचा मुनीनां मतमेदाः वचो यस्य सोऽयं,
-सत्य ही जिसका वचन हो वह
। अथवा जिसका नाम ही सत्यवचा है सत्यवचा नाम वा तस्य । राथी- वह राथीतर अर्थात् रथीतरके वंशमें तरो रथीतरस्य गोत्रो राथीतरा- उत्पन्न हुआ राथीतर आचार्य मानता चार्यों मन्यते। तप इति तप एव है । तप यानी तप ही कर्तव्य है