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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली १
पवित्रं परम ऊर्च यानविन हूँ ।
अर्थात
अहं वृक्षस्योच्छेदात्मकस्य मैं अन्तर्यामीरूपसे वृक्ष अर्थात् संसारवृक्षस्य रेरिचा प्रेरयिता- उच्छेदात्मक संसाररूप वृक्षका प्रेरक अन्तर्याम्यात्मना । कीतिः ख्या- हूँ। मेरी कीर्ति-प्रसिद्धि पर्वतके तिगिरेः पृष्ठमियोच्छ्रिता मम ।
पृष्ठभागके समान ऊँची है । मैं ऊर्च
पवित्र हूँ-पवित्र-पावन अर्थात् ऊर्धपवित्र ऊचं कारणं पवित्रं
ज्ञानसे प्रकाशित होने योग्य पवित्र पावनं ज्ञानप्रकाश्यं पवित्रं परमं परब्रह्म जिस मुझ सर्वात्माका ब्रह्म यस्य सर्वात्मनो मम सो
ऊर्ध्व यानी कारण है वह
- मैं ऊर्ध्वपवित्र हूँ । 'वाजिनि ऽहमूर्ध्वपवित्रः वाजिनीव वाज- इय-बाजवानके समान चाज अर्थात् वतीव । वाजमन्नं तद्वति सवित- अन्न उससे युक्त सूर्यके समान, रीत्यर्थः । यथा सवितर्यमृतमा- जिस प्रकार सैकड़ों श्रुतिस्मृतियोंत्मतत्त्वं विशुद्धं प्रसिद्धं श्रुति
के अनुसार सूर्यमें विशुद्ध
अमृत यानी आत्मतत्त्व प्रसिद्ध है स्मृतिशतेभ्य एवं स्वमृतं शोभनं
न उसी प्रकार मैं भी सु अमृत अर्थात् विशुद्धमात्मतत्त्वमसि भवामि । शोभन-विशुद्ध आत्मतत्व हूँ। द्रविणं धनं सवर्चसं दीप्ति- वही मैं आत्मतत्त्व सवर्चस
दीप्तिशाली द्रविण यानी धन हूँ इस मत्तदेवात्मतत्त्वमसीत्यनुवर्तते ।
प्रकार यहाँ 'अस्मि (हूँ) क्रियाब्रह्मज्ञानं वात्मतत्त्वप्रकाश
की अनुवृत्ति की जाती है । अथया
आत्मतत्त्वका प्रकाशक होनेसे तेजखी कत्वात्सवर्चसम् । द्रविणमिव | ब्रह्मज्ञान
ब्रह्मज्ञान, जो मोक्षसुखका हेतु होने
के कारण धनके समान धन है, द्रविणं मोक्षसुखहेतुत्वात | [ मुझे प्राप्त हो गया है। इस
पक्षमें [ 'अस्मि' क्रियाकी अनुवृत्ति असिन्पक्षे प्राप्तं मयेत्यध्याहारः न करके ] 'मया प्राप्तम्' ( वह कर्तव्यः ।
मुझे प्राप्त हो गया है) इसका अध्याहार करना चाहिये ।