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अनु०२]
शाङ्करभाष्यार्थ
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प्राणियोंद्वारा खाया जाता है और वह भी उन्हींको खाता है। इसीसे वह 'अन्न' कहा जाता है। उस इस अन्नरसमय पिण्डसे, उसके भीतर रहनेवाला दूसरा शरीर प्राणमय है । उसके द्वारा यह ( अन्नमय कोश) परिपूर्ण है । वह यह (प्राणमय कोश ) भी पुरुषाकार ही है । उस (अन्नमय कोश) की पुरुषाकारताके अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है। उसका प्राण ही शिर है । व्यान दक्षिण पक्ष है । अपान उत्तर पक्ष है। आकाश आत्मा ( मध्यभाग ) है और पृथिवी पुच्छ–प्रतिष्ठा है । उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १॥
अन्नाद्रसादिभावपरिणतात्, रसादि रूपमें परिणत हुए अन्नसे अन्नमयोपासन- वा इति सरणार्थः, ही स्थावर-जङ्गमरूप प्रजा उत्पन्न फलम् प्रजाः स्थावरजङ्ग
होती है । 'चै' यह निपात स्मरणके माः प्रजायन्ते । याः काश्चा
अर्थमें है । जो कुछ प्रजा अविशेष विशिष्टाः पृथिवीं श्रिताः पृथि
| भावसे पृथिवीको आश्रित किये हुए है वीमाश्रितास्ताः सर्वा अन्नादेव
वह सब अन्नसे ही उत्पन्न होती है। प्रजायन्ते । अथो अपि जाता
और फिर उत्पन्न होनेपर वह अन्नसे अन्नेनैव जीवन्ति प्राणान्धार
ही जीवित रहती-प्राण धारण
करती अर्थात् वृद्धिको प्राप्त होती है। यन्ति वर्धन्त इत्यर्थः । अथाप्ये
और अन्तमें-जीवनरूप वृत्तिकी नदनमपियन्त्यपिगच्छन्ति ।
समाप्ति होनेपर वह अन्नमें ही लीन अपिशब्दः प्रतिशब्दार्थे ।
हो जाती है । [ 'अपियन्ति' इसमें] 2- अन्नं प्रति प्रलीयन्त इत्यर्थः । 'अपि' शब्द 'प्रति' के अर्थमें है।
अन्ततोऽन्ते जीवनलक्षणाया अर्थात् वह अन्नके प्रति ही लीन वृत्तेः परिसमाप्तौ ।
हो जाती है। कसात् ? अन्नं हि यस्माद् ! इसका कारण क्या है ? क्योंकि
अन्न ही प्राणियोंका ज्येष्ठ यानी भूतानांप्राणिनां ज्येष्ठं प्रथमजम्। अग्रज है । अन्नमय आदि जो इतर अन्नमयादीनां हीतरेषां भूतानां ! प्राणी हैं उनका कारण अन्न ही है।
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