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शाङ्करभाष्यार्थ
दक्षिणो चाहुः पूर्वाभिमुखस्य | मुख व्यक्तिका यह दक्षिण [दक्षिण दक्षिणः पक्षः । अयं सव्यो बाहु- दिशा की ओरका ] वाहु दक्षिण
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पक्ष है, यह वाम बाहु उत्तर पक्ष रुत्तरः पक्षः | अयं मध्यमो देह- | है तथा यह देहका मध्यभाग अङ्गों
भाग आत्माङ्गानाम् । “मध्यं
का आत्मा है; जैसा कि “मध्यभाग ही इन अङ्गोंका आत्मा है" इस ह्येषामङ्गानामात्मा" इति श्रुतेः । श्रुतिसे प्रमाणित होता है । और
इदमिति नाभेरधस्ताद्यदङ्गं ; यह जो नाभिसे नीचेका अङ्ग हैं वही पुच्छ प्रतिष्ठा है । इसके तत्पुच्छं प्रतिष्ठा । प्रतितिष्ठत्यन- द्वारा वह स्थित होता है, इसलिये यह येति प्रतिष्ठा पुच्छमिव पुच्छम् ' उसकी प्रतिष्ठा है। नीचे की ओर लटकने में समानता होनेके कारण वह पुच्छके समान पुच्छ है; जैसे कि गौकी पूँछ ।
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अधोलम्बनसामान्याद्यथा गोः ।
पुच्छम् ।
एतत्प्रकृत्योत्तरेपां प्राणमया
दीनां रूपकत्वसिद्धिः; मृपानिपि क्तद्रुतताम्रप्रतिमावत् । तदप्येष
श्लोको भवति । तत्तस्मिन्नेवार्थे
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इस अन्नमय कोशसे आरम्भ करके ही साँचे में डाले हुए पिघले ताँबेकी प्रतिमाके समान आगेके प्राणमय आदि कोशोंके रूपकत्वकी सिद्धि होती है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है; अर्थात् अन्नमय आत्माको प्रकाशित करनेवाले उस ब्राह्मणोक्त अर्थ में हो यह श्लोक
"ब्राह्मणोक्तेऽन्नमयात्मप्रकाशक
एप श्लोको मन्त्रो भवति ||१|| | अर्थात् मन्त्र है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥ १॥
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