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मनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
' जनकाकृतिनियमदर्शनात् । समान आकृति होनेका नियम देखा
जाता है। सर्वेपामप्यन्नरसविकारत्वे व्र- शंका-सृष्टिमें सभी शरीर समान
रूपसे अन्न और रसके विकार - झवश्यत्वे चाविशिष्टे कस्मात्पुरुप | तथा ब्रह्माके वंशमें उत्पन्न हुए हैं; एव गृह्यते ?
फिर यहाँ पुरुपको ही क्यों ग्रहण
किया गया है ? प्राधान्यात् ।
समाधान-प्रधानताके कारण । किं पुनः प्राधान्यम् । शंका-उसकी प्रधानता क्या है ? कर्मज्ञानाधिकारः । पुरुष एच.
समाधान-कर्म और ज्ञानका
अधिकार ही उसकी प्रधानता है । कथं पल्पस्य हि शक्तत्वाद- कर्म और ज्ञान के साधनमें 1 प्राधान्यन् र्थित्वादपर्युदस्त- समर्थ, [उनके फलकी] इच्छावाला
और उससे उदासीन न होनेके त्वाच कर्मज्ञानयोरधिक्रियते- कारण पुरुप ही कर्म और ज्ञानका
अधिकारी है। "पुरुषमें ही आत्माका "पुरुपे वेवाविस्तरामात्मा स पूर्णतया आविर्भाव हुआ है; वही
प्रकृष्ट ज्ञानसे सबसे अधिक सम्पन्न हि प्रज्ञानेन संपन्नतमो विज्ञातं है। वह जानी-बूझी बात कहता है,
जाने-बूझे पदार्थोंको देखता है, वह वदति विज्ञातं पश्यति बंद | कल होनेवाली बात.भी जान सकता
है, उसे उत्तम और अधम लोकोंका श्वस्तनं वेद लोकालोको मत्यै
ज्ञान है तथा वह कर्म-ज्ञानरूप नामृतमीक्षतीत्येवं संपन्नः ।
नश्वर साधनके द्वारा अमर पदकी
इच्छा करता है-इस प्रकार वह अथेतरेप पनामनायापिपासे | विवेकसम्पन्न है । उसके सिवा
अन्य पशुओंको तो केवल भूखएवाभिविज्ञानम् ।" इत्यादि- प्यासका ही विशेष ज्ञान होता है"
ऐसी एक दूसरी श्रुति देखनेसे भी श्रुत्यन्तरदर्शनात्.। . [पुरुपकीप्रधानता सिद्ध होती है।