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अनु० ]
शाङ्करभाष्यार्थ
ऽकार्यत्वात्कालतः, तद्भिन्नवस्त्व- | किसीका कार्य न होनेके कारण वह कालतः और उससे भिन्न पदार्थका न्तराभावाच्च वस्तुतः । अत एव सर्वथा अभाव होनेके कारण वस्तुतः भी अनन्त है । इसलिये आत्माका सबसे बढ़कर सत्यत्व है ।
. निरतिशयसत्यत्वम् ।
तस्मादिति मूलवाक्यसूत्रितं परामृश्यते । एतस्मादितिमन्त्र
वाक्येनानन्तरं यथालक्षितम् ।
यादौ ब्राह्मणवाक्येन सूत्रितं
[ मन्त्र में ] 'तस्मात् ' ( उससे ) इस पदद्वारा मूलवाक्यमेंसे सूत्ररूपसे कहे हुए 'ब्रह्म' पदका परामर्श किया जाता है। तथा इसके अनन्तर 'एतस्मात् ' इत्यादि मन्त्र - वाक्य से भी पूर्वनिर्दिष्ट ब्रह्मका ही उल्लेख किया गया है । [ तात्पर्य यह यच सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेत्य-: है- ] जिस ब्रह्मका पहले ब्राह्मणवाक्यद्वारा सूत्ररूपसे उल्लेख किया गया है और जो उसके पश्चात् 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इस प्रकार दक्षित किया गया है उस इस ब्रह्म - आत्मासे, अर्थात् 'आत्मा' शब्द - वाच्य ब्रह्मसे - क्योंकि " तत् सत्यं स आत्मा" इत्यादि एक अन्य श्रुतिके अनुसार वह सबका आत्मा है; अतः यहाँ ब्रह्म ही आत्मा है उस इस आत्मखरूप ब्रह्म से आकाश संभूतउत्पन्न हुआ ।
नविनः
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नन्तरमेव लक्षितं तस्मादेतस्माब्रह्मण आत्मन आत्मशब्दवाच्यात् । आत्मा हि तत्सर्वस्य " तत्सत्यं स आत्मा"
( छा० उ० ६ । ८-१६ ) इति श्रुत्यन्तरादतो ब्रह्मात्मा । तस्मा
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देतसाह्रह्मण आत्मस्वरूपादाका - शः संभूतः समुत्पन्नः ।
आकाशो नाम शब्दगुणोऽव
जो शब्द गुणवाला और समस्त मूर्त्त पदार्थों को अवकाश देनेवाला है उसे 'आकाश' कहते हैं । उस
काशकरो मूर्त द्रव्याणाम् । तस्मात्
* क्योंकि जो वस्तु अनन्त होती है वही सत्य होती है, परिच्छिन्न पदार्थ कभी सत्य नहीं हो सकता ।
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