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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्लो २
किन्तु ब्रह्मकी सबसे अभिन्नता किस प्रकार है ? सो बतलाते हैंक्योंकि वह सम्पूर्ण वस्तुओंका कारण है-ब्रह्म काल- आकाश आदि सभी वस्तुओंका कारण है । यदि कहो कि अपने कार्यकी अपेक्षासे
कथं पुनः सर्वानन्यत्वं ब्रह्मण ब्रह्मणः सार्वात्म्यं इत्युच्यते— सर्व |
निरूप्यते
वस्तुकारणत्वात् ।
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सर्वेषां हि वस्तूनां कालाकाशादीनां कारणं ब्रह्म । कार्यापेक्षया वस्तुतोऽन्तवत्वमिति चेन्न ; अनृतत्वात्कार्यवस्तुनः । न हि कारणव्यतिरेकेण कार्य नाम वस्तुतोऽस्ति यतः कारणबुद्धिविनिवर्तेत । "वाचारम्भणं वि कारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्" ( छा० उ० ६ । १ । ४) एवं सदेव सत्यमिति श्रुत्य न्तरात् ।
तो उसका वस्तुसे अन्तवत्त्व हो ही जायगा, तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि कार्यरूप वस्तु तो मिथ्या है - वस्तुतः कारणसे भिन्न कार्य है ही नहीं जिससे कि कारणबुद्धिकी निवृत्ति हो "वाणीसे आरम्भ होनेवाला विकार केवल नाममात्र है, मृत्तिका हो सत्य है" इसी प्रकार "सत् ही सत्य है - ऐसा एक अन्य श्रुति से भी सिद्ध होता है ।
तस्मादाकाशादिकारणत्वाद्दे
शतस्तावदनन्तं ब्रह्म । आकाशो
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अतः आकाशादिका कारण होनेसे ब्रह्म देशसे भी अनन्त हैं । आकाश देशतः अनन्त है - यह तो प्रसिद्ध ही है, और यह उसका
नन्त इति प्रसिद्धं देशतः,
तस्येदं कारणं तस्मात्सिद्धं देशत | कारण है; अतः आत्माका देशतः अनन्तत्व सिद्ध हो है, क्योंकि लोकमें असर्वगत वस्तुसे कोई सर्वगत
आत्मन आनन्त्यम् । न ह्यसर्वगतात्सर्वगतमुत्पद्यमानंं लोके
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वस्तु उत्पन्न होती नहीं देखी जाती । किंचिदृश्यते । अतो निरति - | निरतिशय है [ अर्थात् उससे बड़ा इसलिये आत्माका देशतः अनन्तत्व शयमात्मन आनन्त्यं देशतस्तथा | और कोई नहीं है ] । इसी प्रकार