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तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली २
प्राधान्यमित्यवोचाम | शून्ये हि सत्यादि शब्द विशेषण होनेपर भी
उनका प्रधान प्रयोजन लक्षणके लिये लक्ष्येऽनर्थकं लक्षणवचनं लक्षणा
होना ही है-यह हम पहले ही कह र्थत्वात्मन्यामहे न शून्यार्थतेति । चुके हैं । यदि लक्ष्य शून्य हो तब
तो उसका लक्षण बतलाना भी व्यर्थ विशेषणार्थत्वेऽपि च सत्यादीनां
ही होगा । अतः लक्षणार्थ होने स्वार्थापरित्याग एव । | कारण उनकी शृन्यार्थता नहीं हैशून्यार्थत्वे हि सत्यादि
ऐसा हम मानते हैं । विशेषणके
५ लिये होने पर भी सत्यादि शब्दके शब्दानां विशेष्यनियन्तृत्वातुप-अपने अर्थका त्याग तो होता ही
नहीं है । यदि सत्यादि शब्दोंकी पत्तिः। सत्याद्यथैरर्थवत्वे तु शून्यार्थता हो तो वे अपने विशेप्यके
नियन्ता है-ऐसा नहीं माना जा तद्विपरीतधर्मवद्भयो विशेष्येभ्यो
सकता । सत्यादि अोंसे अर्थवान् ब्रह्मणो विशेष्यस्य नियन्तृत्वमुप
होनेपर ही उनके द्वारा अपनेसे विपरीत
धर्मवाले विशेष्यों से अपने विशेष्यवापद्यते । ब्रह्मशब्दोऽपि स्वार्थनार्थ- का नियन्तृत्व बन सकता है । 'ब्रह्म
शब्द भी अपने अर्थसे अर्थवान् ही वानेव । तत्रानन्तशब्दोऽन्तवत्व- है। उन सत्यादि तीन शब्दों में प्रतिपेधद्वारेण विशेषणम् । सत्य
'अनन्त' शब्द उसके अन्तवत्त्वका
प्रतिपेध करनेके द्वाराउसका विशेषण ज्ञानशन्दौ तु स्वार्थसमर्पणेनैव होता है तथा 'सत्य' और 'ज्ञान'
| शब्द तो अपने अर्योंके समर्पणद्वारा विशेषणे भवतः।
ही उसके विशेपण होते हैं। "तसाद्वा एतसादात्मनः" इति। शंका-"उसइस आत्मासे आकाश :
उत्पन्न हुआ" इस श्रुतिमें 'आत्मा' ब्रह्मण्येवात्मशन्दप्रयोगाद्वदितु- शब्दका प्रयोग ब्रह्मके ही लिये