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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
भावाद्विज्ञानानुपपत्तिः। आत्म-सम्भव ही नहीं है । आत्माका -
विज्ञेयत्व स्वीकार करनेपर तो ज्ञाताके नश्च विज्ञेयत्वे ज्ञानभावप्रसङ्ग, अभावका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता
है, क्योंकि वह तो विज्ञयरूपसे ही ज्ञेयत्वेनैव विनियुक्तत्वात् ।
विनियुक्त (प्रयुक्त) हो चुका है।
[अब उसे ज्ञाता कैसे माना जाय ?] एक एवात्मा ज्ञेयत्वेन ज्ञात- शंका-एक ही आत्मा ज्ञेय और
, ज्ञाता दोनों प्रकारसे हो सकता हैत्वेन चोभयथा भवतीति चेत् ?
' ऐसा मानें तो? न युगपदनंशत्वात् । न हि समाधान-नहीं, वह अंशरहित निरवयवस्य युगपज्ज्ञयज्ञातृत्वो
होनेके कारण एक साथ उभयरूप
नहीं हो सकता । निरवयव ब्रह्मका पपत्तिः आत्मनश्च घटादिवद्विजे- एक साथ ज्ञेय और ज्ञाता होना यत्वे ज्ञानोपदेशानर्थक्यम् । न । सम्भव नहीं है । इसके सिवा यदि हि घटादिवत्प्रसिद्धय ज्ञानोप
| आत्मा घटादिके समान विज्ञेय हो
तो ज्ञानके उपदेशको व्यर्थता हो देशोऽर्थवान् । तसाज्ज्ञातृत्वे जायगी । जो वस्तु घटादिके समान सति आनन्त्यानुपपत्तिः । प्रसिद्ध है उसके ज्ञानका उपदेश
सार्थक नहीं हो सकता । अतः सन्मात्रत्वं चानुपपन्नं ज्ञान- 3
उसका ज्ञातृत्व माननेपर उसर्क कर्तृत्वादिविशेषवत्त्वे सति । स- | अनन्तता नहीं रह सकती । ज्ञानन्मात्रत्वं च सत्यत्त्वम्, "तत्स
कर्तृत्वादि विशेषसे युक्त होनेपर
उसका सन्मात्रत्व भी सम्भव नहीं त्यम्" (छा० उ० ६१८१६) है । और "वह सत्य है" इस एक इति श्रुत्यन्तरात् । तस्मा
अन्य श्रुतिसे उसका सत्यरूप होना
ही सन्मात्रत्व हैं । अतः 'सत्य' और त्सत्यानन्तशन्दाभ्यां सह विशे- 'अनन्त' शब्दोंके साथ विशेषण