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अनु० १ ]
कुतश्चित्प्रविभज्यते तदनन्तम् । ज्ञानकर्तृत्वे च ज्ञेयज्ञानाभ्यां
शाङ्करभाष्यार्थ
प्रविभक्तमित्यनन्तता न स्यात् । "यत्र नान्यद्विजानाति स भूमा अथ यत्रान्यद्विजानाति तदल्पम्”
( छा० उ० ७ । २४ । १ ) इति
श्रुत्यन्तरात् ।
विभक्त नहीं होता वही अनन्त हो सकता है। ज्ञानकर्ता होनेपर तो वह ज्ञेय और ज्ञानसे विभक्त होगा; इसलिये उसकी अनन्तता सिद्ध नहीं हो सकेगी । " जहाँ किसी दूसरेको नहीं जानता वह भूमा है और जहाँ किसी दूसरे को जानता है वह अल्प है" इस एक दूसरी श्रुतिसे यही सिद्ध होता है ।
नान्यद्विजानातीति विशेष
इस श्रुतिमें 'दूसरेको नहीं जानता' इस प्रकार विशेषका प्रतिपेधादात्मानं विजानातीति । प्रतिपेध होनेके कारण वह स्वयं अपनेको ही जानता है-ऐसी यदि चेन्नः भूमलक्षणविधिपरत्वाद्वा- कोई शङ्का करे तो ठीक नहीं, क्योंकि यह वाक्य भूमाके लक्षणका क्यस्य । यत्र नान्यत्पश्यतीत्यादि विधान करनेमें प्रवृत्त है । 'यत्र नान्यत्पश्यति' इत्यादि वाक्य भूमाके भूम्नो लक्षणविधिपरं वाक्यम् | लक्षणका विधान करनेमें तत्पर है। यथा प्रसिद्धमेवान्योऽन्यत्पश्य- अन्य अन्यको देखता है-इस लोकप्रसिद्ध वस्तुस्थितिको स्वीकार कर 'जहाँ ऐसा नहीं है वह भूमा है'- इस प्रकार उसके द्वारा भूमाके खरूपका बोध कराया जाता है । 'अन्य' शब्दका ग्रहण तो यथाप्राप्त द्वैतका प्रतिपेध करनेके लिये है; अतः यह वाक्य अपनेमें क्रियाका अस्तित्व त्वान्न खात्मनि क्रियास्तित्वपरं । प्रतिपादन करनेके लिये नहीं है । और खात्मामें तो भेदका अभाव वाक्यम् । स्वात्मनि च भेदा- | होनेके कारण उसका विज्ञान होना
तीत्येतदुपादाय यत्र तन्नास्ति
स भूमेति भूमस्वरूपं तत्र ज्ञाप्य -
ते । अन्यग्रहणस्य प्राप्तप्रतिषेधार्थ