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अनु० १ ]
· शाङ्करभाष्यार्थं
न तत्कारणान्तरसव्यपेक्षम् । हो है; उसे किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वह नित्यनित्यस्वरूपत्वात् । सर्वभावानां च स्वरूप है । तथा उस ब्रह्मसे सम्पूर्ण तेनाविभक्तदेशकालत्वात् काला- | भावपदार्थोके देश-काल अभिन्न हैं, काशादिकारणत्वाच्च निरतिशय- और वह काल तथा आकाशादिका भी कारण एवं निरतिशय सूक्ष्म सूक्ष्मत्वाच्च । न तस्यान्यदचिज्ञेयं | है; अतः ऐसी कोई सूक्ष्म, व्यवहित सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टं भूतं ( व्यवधानवाली), विप्रकृष्ट (दूर) तथा भूत, भविष्यत् या वर्तमान भवद्भविष्यद्वास्ति । तस्मात्सर्वज्ञं । वस्तु नहीं है जो उसके द्वारा जानी न जाती हो; इसलिये वह ब्रह्म सर्वज्ञ है ।
तद्ब्रह्म ।
मन्त्रवर्णाच - " अपाणिपादो
जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: । स वेत्ति चेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्न्यं
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पुरुपं महान्तम्” (श्वे० उ० ३ ।
"वह बिना हाथ-पाँव के ही वेगसे चलने और ग्रहण करनेवाला है, बिना नेत्रके ही देखता है और बिना कानके ही सुनता है । वह सम्पूर्ण वेद्यमात्रको जानता है, उसे जाननेवाला और कोई नहीं है, उसे सर्वप्रथम परमपुरुष कहा गया है ।" इस मन्त्रवर्ण१९ ) इति । " न हि विज्ञातुर्वि - | से तथा "अविनाशी होने के कारण ज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविना- | विज्ञाताके ज्ञानका कमी लोप नहीं होता और उससे भिन्न कोई दूसरा शित्वान्न तु तद्वितीयमस्ति" भी नहीं है [ जो उसे देखे ]" ( वृ० उ० ४ | ३ | ३० ) इत्यादि इत्यादि श्रुतियोंसे भी यही सिद्ध श्रुतेश्च । विज्ञातृस्वरूपाव्यतिरेका होता है । अपने विज्ञातृस्वरूपसे अभिन्न तथा इन्द्रियादि साधनोंकी करणादिनिमित्तानपेक्षत्वाच्च व्र- | अपेक्षासे रहित होने के कारण ज्ञानझणो ज्ञानस्वरूपत्वेऽपि नित्यत्व | स्वरूप होनेपर भी ब्रह्मका नित्यत्व