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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
ज्ञासव" ( तै० उ०३।२।५ ) " तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर"
अतः ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये कर्म करने चाहिये । 'अनुशास्ति' इसमें 'अनुशासन' - ऐसा शब्द होनेके कारण उस अनुशासनका अतिक्रमण करनेपर दोपकी उत्पत्ति होगी ।
इति । अतो विद्योत्पत्त्यर्थमनुष्ठेयानि कर्माणि । अनुशास्तीत्यनु
शासनशब्दादनुशासनातिक्रमे हि दोपोत्पत्तिः ।
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प्रागुपन्यासाच्च कर्मणाम् । केवलत्रह्मविद्यारम्भाच पूर्व कर्माण्युपन्यस्तानि । उदितायां च ब्रह्मविद्यायाम् " अभयं प्रतिष्ठां विन्दते” (तै० उ० २।७।१) " न विभेति कुतश्चन " ( तै० उ० २१९११) " किमहं साधु नाकरचम्” ( तै० उ० २ । ९ । १ ) इत्येवमादिना कर्मनैष्किञ्चन्यं दर्शयिष्यतिः इत्यतोऽवगम्यते पूर्वोपचितदुरितक्षयद्वारेण विद्योत्पत्यर्थानि कर्माणीति ।
कर्मो का उपन्यास पहले किया जानेके कारण भी [ यह निश्चय होता है कि ये कर्म विद्याकी उत्पत्तिके लिये हैं ] । कमका उपन्यास | केवल ब्रह्मविद्याका निरूपण आरम्भ करनेसे पूर्व ही किया गया है । ब्रह्मविद्याका उदय होनेपर तो "अभय प्रतिष्ठाको प्राप्त कर लेता है" "किसी से भी भय नहीं मानता" "मैंने कौन-सा शुभकर्म नहीं किया" इत्यादि वाक्योंद्वारा कर्मोकी निष्किञ्चनता ही दिखलायेंगे । इससे विदित होता है कि कर्म पूर्वसचित पापोंके क्षयके द्वारा ज्ञानकी प्राप्तिके ही लिये हैं । "अविद्या ( कर्म ) से मृत्यु ( अधर्म ) को
मन्त्रवर्णाच - " अविद्यया मृत्युं | पार करके विद्या ( उपासना ) से अमरत्व लाभ करता है" इस मन्त्र - तीर्त्वा
विद्ययामृतमश्नुते" वर्णसे भी यही बात प्रमाणित होती
( ई० उ० ११ ) इति । ऋता - | है | अतः पहले ( नवम अनुवाकमें)