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द्वादश अनुवाक अतीतविद्याप्राप्त्युपसर्गशम- ! नार्थ शान्ति पठति -
पूर्वकथित विद्याकी प्राप्तिके प्रतिबन्धोंकी शान्तिके लिये शान्तिपाठ किया जाता है
शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिपम् । ऋतमवादिषम् । सत्यमवादिषम् । तन्मामावीत् । तद्वक्तारमावीत् । आवीन्माम् । आवीद्वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ॥ शान्तिः !!! ॥ १ ॥
मित्र (सूर्यदेव) हमारे लिये सुखकर हो । वरुण हमारे लिये सुखावह हो । अर्यमा हमारे लिये सुखप्रद हो । इन्द्र तथा बृहस्पति हमारे लिये शान्तिदायक हों । तथा जिसका पादविक्षेप बहुत विस्तृत है वह विष्णु हमारे लिये सुखदायक हो । त्रह्म [ रूप वायु ] को नमस्कार है । हे बायो ! तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । तुम्हींको हमने प्रत्यक्ष ब्रह्म कहा है । तुम्हींको ऋत कहा है । तुम्हींको सत्य कहा है । अतः तुमने मेरी रक्षा की है तथा ब्रह्मका निरूपण करनेवाले आचार्यकी भी रक्षाकी है । मेरी रक्षा की है और वक्ताकी भी रक्षा की है । त्रिविध तापकी शान्ति हो ॥ १ ॥
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व्याख्यातमेतत्पूर्वम् ॥ १ ॥
इसकी व्याख्या पहले की जा चुकी है ॥ १ ॥
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इति शीक्षावल्ल्यां द्वादशोऽनुवाकः ॥ १२ ॥
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११-१२
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्द भगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्ये शीक्षावल्ली समाप्ता ॥
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