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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली १
विद्याकर्मणी मोक्षप्रतिवन्ध- विद्या और कर्म ये दोनों मोक्षके
प्रतिबन्धके हेतुओंको निवृत्त करनेहेतुनिवर्तके इति चेत-न, कर्मणः वाले हैं [ मोक्षके स्वरूपको उत्पन्न
करनेवाले नहीं हैं। अतः जिस
प्रकार प्रध्वंसाभाव कृतक होनेपर फलान्तरदर्शनात् । उत्पत्तिसं
भी नित्य है उसी प्रकार उन प्रति
बन्धोंकी निवृत्ति भी नित्य ही होगी] स्कारविकाराप्तयो हि फलं
-यदि ऐसा कहो तो यह कथन
ठीक नहीं, क्योंकि कर्मोका तो कर्मणो दृश्यते । उत्पत्त्यादिफल
अन्य ही फल देखा गया है। उत्पत्ति,
संस्कार, विकार और आप्ति-ये विपरीतश्च मोक्षः।
कर्मके फल देखे गये हैं। किन्तु
| मोक्ष उत्पत्ति आदि फलसे विपरीत है। गतिश्रुतेराप्य इति चेत् । पूर्व०-गतिप्रतिपादिका श्रुतियों"सूर्यद्वारेण", "तयोर्चमायन" से तो मोक्ष आप्य सिद्ध होता
है-"सूर्यद्वारसे", "उस सुषुम्ना (क० उ० २।३।१८) इत्ये
नाडीद्वारा ऊर्चलोकोंको जानेवाला" वमादिगतिश्रुतिभ्यः प्राप्यो मोक्ष आदि गतिप्रतिपादिका श्रुतियोंसे इति चेत् ।
जाना जाता है कि मोक्ष प्राप्य है। न; सर्वगतत्वाइन्तभिश्चा- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है, नन्यत्वादाकाशादिकारणत्वात्स- क्योंकि ब्रह्म सर्वगत, गमन करने
| वालोंसे अभिन्न और आकाशादिवंगतं ब्रह्म । ब्रह्माव्यतिरिक्ताश्च का भी कारण होनेसे सर्वगत सर्वे विज्ञानात्मानः । अतो ना- है तथा सम्पूर्ण विज्ञानात्मा ब्रह्मसे प्यो मोक्षः । गन्तुरन्यविभिन्न अभिन्न हैं; इसलिये मोक्ष आप्य देशं प्रति भवति गन्तव्यम् । न अन्य देशमें ही गमन करने योग्यहुआ
नहीं है । गमन करनेवालेसे पृथक् हि येनैवाव्यतिरिक्तं यत्तत्तेनैव | करता है । जो जिससे अभिन्न होता