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धनु० १६ ]
गम्यते । तदनन्यत्वप्रसिद्धेश्व है उसीसे वह गन्तव्य नहीं होता । "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " और उसकी अनन्यता तो “उसे रचकर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया " ( तै० उ० २ । ६ । १ ) “क्षेत्रज्ञं “सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तू मुझको चापि मां विद्धि" (गीता १३१२) ही जान" इत्यादि सैकड़ों श्रुतिइत्येवमादिश्रुतिस्मृतिशतेभ्यः । स्मृतियोंसे सिद्ध होती है । गत्यैश्वर्यादिश्रुतिविरोध इति चेत् । अथापि स्याद्यद्यप्राप्यो ! गति और ऐश्वर्यका प्रतिपादन करनेमोक्षस्तदा गतिश्रुतीनां "स वाली श्रुतियोंसे विरोध होगा- अच्छा, यदि मोक्ष अप्राप्य ही हो तो भी
पूर्व० - [ ऐसा माननेसे तो ]
गतिश्रुति तथा “वह एकरूप होता है" "वह यदि पितृलोककी इच्छावाला होता है" "वह स्त्री और यानोंके साथ रमण करता है" इत्यादि श्रुतियोंका व्याकोप ( बाथ ) हो
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१२ । ३ ) इत्यादिश्रुतीनां च
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शाङ्करभाष्यार्थ
एकधा" ( छा० उ०७ १२६१२) “सयदि पितृलोककामो भवति” ! ( छा० उ०८।२ । १ ) "स्त्रीभिर्वा यानैर्वा" ( छा० उ० ८१
कोपः स्यादिति चेत् ।
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जायगा ।
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सिद्धान्ती नहीं, क्योंकि वे तो साम् । कार्ये हि ब्रह्मणि स्त्र्या - ! कार्यत्रह्मसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं । दयः स्युर्न कारणे । “एकमेवा - | स्त्री आदि तो कार्य ब्रह्ममें ही हो द्वितीयम्” ( छा० उ० ६ । २ सकती हैं, कारण ब्रह्ममें नहीं; जैसा १ ) "यत्र नान्यत्पश्यति" ( छा० उ० ७ । २४ । १) " तत्केन कं पश्येत्" ( वृ० उ० २ । ४ । १४, ४ । ५ । १५ ) | इत्यादिश्रुतिभ्यः ।
कि “एक ही अद्वितीय ब्रह्म" "जहाँ कोई और नहीं देखता" "तब किसके द्वारा किसे देखे" इत्यादि श्रुतियोंसे सिद्ध होता है ।
नः कार्यत्रह्मविषयत्वात्ता