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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
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व्याहृतिका ध्यान करनेसे वायुमें ॥१॥ 'सुवः' इस व्याहृतिका चिन्तन करनेसे आदित्यमें तथा 'महः' की उपासना करनेसे ब्रह्ममें स्थित हो जाता है । इस प्रकार वह खाराज्य प्राप्त कर लेता है तथा मनके पति (ब्रह्म) को पा लेता है । तथा वाणीका पति, चक्षुका पति, श्रोत्रका पति और सारे विज्ञानका पति हो जाता है । यही नहीं, इससे भी बड़ा हो जाता है । वह आकाशशरीर, सत्यस्वरूप, प्राणाराम, मनआनन्द (जिसके लिये मन आनन्दस्वरूप है), शान्तिसम्पन्न और अमृतवरूप ब्रह्म हो जाता है । हे प्राचीनयोग्य शिष्य ! त इस प्रकार [ उस ब्रह्मकी ] उपासना कर ॥ २ ॥ 'स' इति व्युत्क्रम्य 'अयं सः' इस पहले पदका, पाठ
क्रमको छोड़कर आगेके 'अयं हृदयाकाशतत्स्य- पुरुपः इत्यनेन सं
पुरुषः' इस पदसे सम्बन्ध है । जो जीवयोः स्वरूपन् वध्यते । य एपो- यह अन्तर्हृदयमें-हृदयके भीतर
[ आकाश है ] । हृदय अर्थात् ऽन्तर्हदये हृदयस्यान्तहृदयमिति
श्वेत कमलके आकारवाला मांसपुण्डरीकाकारो मांसपिण्डः प्रा- | पिण्ड, जो प्राणका आश्रय, अनेकों
| नाडियोंके छिद्रवाला तथा ऊपरको णायतनोऽनेकनाडीसुपिर ऊध्र्व- नाल और नीचेको मुखवाला है,
जो कि पशुका आलभन (वध) नालोऽधोमुखो विशस्थमाने पशौ
किये जानेपर स्पष्टतया उपलब्ध
, प्रसिद्ध उपलभ्यते । तस्यान्तर्य होता है। उसके भीतर जो यह
कमण्डलुके अन्तर्वर्ती आकाशके एप आकाशः प्रसिद्ध एव कर- समान प्रसिद्ध आकाश है उसीमें
.यह पुरुष रहता है। जो शरीररूप काकाशवत् , तसिन्सोऽयं पुरुषः।
पुरमें शयन करनेके कारण अथवा पुरि शयनात्पूर्णा वा भूरादयो
उसने भूः आदि सम्पूर्ण लोकोंको
पूरित किया हुआ है इसलिये लोका येनेति पुरुषः। मनोमयो 'पुरुष' कहलाता है । वह मनोमय