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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
धर्मविशिष्टं साक्षादुपलभ्यते । ब्रह्म हथेली पर रखे हुए आँवलेके पाणाविवामलकम् । मार्गश्च समान साक्षात् उपलब्ध होता है । इसके सिवा सर्वात्मभावकी प्राप्तिके सर्वात्मभावप्रतिपत्तये वक्तव्य लिये मार्ग भी बताना है, इसलिये इस इत्यनुवाक आरभ्यते
अनुवाक्का आरम्भ किया जाता हैस य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः । तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः । अमृतो हिरण्मयः । अन्तरेण तालुके । य एष स्तन इवावलम्बते । सेन्द्रयोनिः । यत्रासौ केशान्तो विवर्तते । व्यपोह्य शीर्षकपाले । भूरित्यनौ प्रतितिष्ठति । भुव इति वायौ ॥ १ ॥
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सुवरित्यादित्ये । मह इति ब्रह्मणि । आप्नोति स्वाराज्यम् । आप्नोति मनसस्पतिम् । वाक्पतिश्रक्षुप्पतिः । श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिः । एतत्ततो भवति । आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्राणारामं मनआनन्दम् । शान्तिसमृद्धममृतम् । इति प्राचीनयोग्योपास्व ॥ २ ॥
यह जो हृदय के मध्य में स्थित आकाश है उसमें ही यह मनोमय अमृतस्वरूप हिरण्मय पुरुष रहता है । तालुओंके बीचमें और [ उनके मध्य ] यह जो स्तनके समान [ मांसखण्ड ] लटका हुआ है [ उसमें होकर जो सुषुम्न नाडी ] जहाँ केशोंका मूलभाग विभक्त होकर रहता है उस मूर्धप्रदेश मस्तक कपालोंको विदीर्ण करके निकल गयी है वह इन्द्रयोनि [अर्थात परमात्माकी प्राप्तिका मार्ग ] है । [ इस प्रकार उपासना करनेवाला पुरु प्राणप्रयाणके समय मूर्धाका भेदन कर ] 'भू:' इस व्याहृतिरूप अि स्थित होता है [ अर्थात् 'भू:' इस व्याहृतिका चिन्तन करनेसे अग्नि रूप होकर इस लोकको व्याप्त करता है ] । इसी प्रकार 'भुत्र:' इर