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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
'शान्तिसमृद्धस्' इत्येवमन्तो | तो ज्ञान नहीं हुआ । [अगले अनुवाक
विशेषणविशेष्यरूपो धर्मपूगो न विज्ञायत इति तद्विवक्षु हि
में] 'शान्तिसमृद्धम्' इस वाक्यतक कहा हुआ विशेषण - विशेष्यरूप धर्मसमूह ज्ञात नहीं है; उसे बतलानेकी इच्छासे ही शास्त्रने ब्रह्मको न जाने हुएके समान मानकर 'चह ब्रह्मको जानता है' ऐसा कहा है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है । इसका अभिप्राय यह है कि जो पुरुष आगे बतलाये जानेवाले धर्म समूहसे विशिष्ट ब्रह्मको जानता है वही ब्रह्मको जानता है । अतः आगे कहे जानेवाले अनुवाकसे इसकी एकवाक्यता है क्योंकि इन दोनों अनुवाकों की एक ही उपासना है ।
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शास्त्रमविज्ञातमिव ब्रह्म मत्वा स
वेद मोत्याह । अतो न दोषः ।
यो हि वक्ष्यमाणेन धर्मपूगेन
ब्रह्म
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विशिष्टं ब्रह्म वेद स वेद
त्यभिप्रायः । अतो वक्ष्यमाणा -
नुवाकेनैकवाक्यतास्यः उभयोर्ध
नुवाकयोरेकमुपासनम् । लिङ्गाच, भूरित्यग्नौ प्रति
तिष्ठतीत्यादिकं लिङ्गमुपासनै
[ ज्ञापक ] लिङ्ग होने से भी यही बात सिद्ध होती है । [ छठें अनुवाकमें ] 'भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति' इत्यादि फलश्रुति इन दोनों अनुवाकों में
कत्वे । विधायकाभावाच्च । न हि एक ही उपासना होनेका लिङ्ग है । कोई विधान करनेवाला शब्द न 'वेद' 'उपासितव्यः' इति विधा जाता है। [ छठे अनुवाकमें ] 'वेद' होने के कारण भी ऐसा ही समझा 'उपासितव्यः' ऐसा कोई [ उपासनायकः कश्चिच्छन्दोऽस्ति । व्याहृत्य - नहीं है । व्याहृति- अनुवाकमें का ] विधान करनेवाला शब्द
जो 'उन ( व्याहृतियों ) को जो नुवाके 'ता यो वेद' इति च । जानता है' ऐसा वाक्य है वह