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ता वा एताश्रस्रवतुर्धेति ।
ता वा एता भूर्भुवः सुवर्मद इति
चतस्र एकैकशचतुर्धा चतुष्प्र
काराः । धाशब्दः प्रकारवचनः । | अर्थात् वे चार-चार होती हुई चार प्रकारकी हैं । उनकी जिस प्रकार पहले कल्पना की गयी है उसी प्रकार उपासना करनेका नियम करने के लिये उनका पुनः उपदेश किया गया है । उन उपर्युक्त व्याहृतियोंको जो पुरुष जानता है वही जानता है । किसे जानता है ? ब्रह्मको ।
चतस्रश्चतस्रः सत्यश्वतुर्धा भवन्तीत्यर्थः । तासां यथाकृतानां पुनरुपदेशस्तथैवोपासन नियमार्थः ।
ता यथोक्तव्याहृतीर्यो वेद स
वेद विजानाति । किम् ? ब्रह्म ।
ननु " त स आत्मा" इति
शाङ्करभाष्यार्थ
तद्विशेषविवक्षुत्वाद
दोषः । सत्यं विज्ञातं
पचनपष्ठानु
बाफयोरेकवाक्यता चतुर्थव्याहृत्यात्मा
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शंका- "वह ब्रह्म है, वह आत्मा है" इस वाक्यद्वारा [ महः रूपसे ] ज्ञाते ब्रह्मणि न वक्तव्यमविज्ञात- | ब्रह्मको जान लेनेपर भी उसे न जानने के समान ' [ उसे जो जानता है ] वह ब्रह्मको जानता है' ऐसा कहना तो ठीक नहीं है ।
वत्स वेद ब्रह्मेति ।
न;
वे ये चारों व्याहृतियाँ चार प्रकारकी हैं । अर्थात् वे ये भूः, भुवः, सुत्रः और महः चार व्याहृतियाँ प्रत्येक चार-चार प्रकारकी हैं । 'धा' शब्द 'प्रकार' का वाचक है ।
समाधान - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उस [ ब्रह्मविपयक ज्ञान ] के विषयमें विशेष कहना अभीष्ट होने के कारण इस प्रकार कहने में कोई दोप नहीं है । यह ठीक है कि इतना तो जान लिया ब्रह्मेति न तु तद्विशेषो हृदयान्त- कि चतुर्थ व्याहृतिरूप ब्रह्म है; किन्तु हृदयके भीतर उपलब्ध होना तथा मनोरुपलभ्यत्वं मनोमयत्वादिश्च । मयत्वादिरूप उसकी विशेषताओंका ५-६