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अष्टम अनवाक
ओझारोपासनाका विधान व्याहत्यात्मनो ब्रह्मण उपा-' व्याहृतिरूप ब्रह्मकी उपासनाका सनमुक्तम् । अनन्तरं च पाङ्क्त
. निरूपण किया गया। उसके पश्चात्
, उसीकी उपासनाका पाङ्क्तरूपसे स्वरूपेण तस्यैवोपासनमुक्तम् । वर्णन किया । अब सम्पूर्ण इदानीं सर्वोपासनाङ्गभूतस्योङ्का
उपासनाओंके अङ्गभूत ओंकारकी
उपासनाका विधान करना चाहते रस्योपासनं विधित्स्यते । परापर- हैं । पर एवं अपर ब्रह्मदृष्टि से ब्रह्मदृष्टया उपास्यमान ओङ्कारः उपासना किये जानेपर ओंकार
केवल शब्दमात्र होनेपर भी पर शब्दमात्रोऽपि परापरब्रह्मप्राप्ति- और अपर ब्रह्मकी प्राप्तिका साधन साधनं भवति । स ह्यालम्बनं होता है । वही पर और अपर ब्रह्मका
आलम्बन है, जिस प्रकार कि ब्रह्मणः परस्यापरस्य च, प्रति- 'विष्णुका आलम्बन प्रतिमा है। मेव विष्णोः । "एतेनैवायतने-1 "इसी आलम्बनसे उपासक [ पर
या अपर ] किसी एक ब्रह्मको प्राप्त नकतरमन्वात" (प्र० उ०५॥ हो जाता है" इस श्रुतिसे यही २) इति श्रुतेः।
| बात प्रमाणित होती है। ओमिति ब्रह्म । ओमितीद सर्वम् । ओमित्येतदनुकृति स्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति सामानि गायन्ति । ओशोमिति शस्त्राणि शसन्ति ।
ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति । ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति । ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति । ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥१॥