________________
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
·
अन्य
इतराच व्याहृतयो लोका देवा देव, वेद और प्राणरूप चेदाः प्राणाञ्च मह इत्यनेन | व्याहृतियों आदित्य, चन्द्र, ब्रह्म एवं अन्नत्वरूप व्याहत्यात्मक महः से
३२
व्याहृत्यात्मनादित्यचन्द्रनान- व्याप्त हैं, इसलिये वे अन्य देवता भृतेन व्याप्यन्ते यतः अतो इसके अंग - अत्रयत्र हैं । यहाँ ऽङ्गान्यवयचा अन्या देवताः । टोकादिका उपलक्षण करानेके लिये देवताग्रहणमुपलक्षणार्थं लोका- | 'देवता' शब्दका ग्रहण किया गया है । क्योंकि देव और टोक दीनाम् । मह इत्येतस्य व्या- आदि सभी 'महा' इस व्याहत्यात्माके हृत्यात्मनो देवलोकादयः सर्वे- | अवयवरूप हैं, इसीलिये ऐसा ऽवयवभूता यतोऽत आहादित्या- कहा है कि आदित्यादिक योगसे लोकादि महत्ताको प्राप्त होते हैं । दिभिर्लोकादयो महीयन्ते इति । आत्मासे ही अङ्ग महत्ताको प्राप्त आत्मनो हाङ्गानि महीयन्ते, महनं हुआ करते हैं । 'महन' शब्दका वृद्धिरुपचयः । महीयन्ते वर्धन्त अर्थ वृद्धि - उपचय है । अतः 'महीयन्ते इसका 'वृद्धिको प्राप्त इत्यर्थः । होते हैं यह अर्थ है |
अयं लोकोऽग्निर्ऋग्वेदः प्राण प्रतिव्याहृति इति प्रथमा व्याहृति - चत्वारो मेदाः भूरिति । एवमुत्त रोचरैकैका चतुर्धा भवति ।
यह लोक, अग्नि, ग्वेद और प्राणचे पहली व्याहति भूः हैं; इसी प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक व्याहति चारचार प्रकारकी है * 'महः ' ब्रह्म मह इति ब्रह्म । ब्रह्मेत्योङ्कारः, | शब्द के प्रकरण में अन्य किसो ब्रह्महै; ब्रह्मका अर्थ ओंकार है, क्योंकि शब्दाधिकारेऽन्यस्यासंभवात् । का होना असम्भव है । शेप सबका उक्तार्थमन्यत् । अर्थ पहले कहा जा चुका है ।
* यथा अन्तरिक्षलोक, वायु, सामवेद और अपान ये दूसरी व्याहृति भुवः हैं; द्युलोक, आदित्य, यजुर्वेद और ब्यान — ये तीसरी व्याहृति तुवः है, तथा आदित्य, चन्द्रमा, ब्रह्म और अन्न---ये चौथी व्याहृति महः हैं ।