Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
संग्रह नय के अनुसार आत्मा एक है, व्यवहार नय के अनुसार आत्मा अनंत है। अथवा प्रत्येक आत्मा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा तुल्य होने से एक है। प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त अनन्त आत्माओं के प्रदेश समान हैं। इस अपेक्षा से भी आत्मा एक है।
एगे दंडे - 'दण्ड' शब्द की व्याख्या इस प्रकार है -
'दण्ड्यते ज्ञानाद्येश्वर्यापहारतोऽसारी क्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः' - जिसके द्वारा आत्मा ज्ञानादि ऐश्वर्य से रहित कर दी जाती है वह दण्ड कहलाता है। दण्ड दो प्रकार का होता है - १. द्रव्य दण्ड
और २. भाव दण्ड। द्रव्य दण्ड - लाठी आदि और भाव दण्ड के तीन भेद हैं मन दण्ड, वचन दण्ड, काया दण्ड। इन तीनों योगों की दुष्प्रवृत्ति को भाव दण्ड कहते हैं। यहां जो दण्ड का उल्लेख किया गया है वह संग्रह नय की दृष्टि से ही है। दण्ड अपने सामान्य दण्डत्व स्वरूप की दृष्टि से एक है।
किरिया - 'करणं क्रिया' - करना क्रिया है। यहाँ क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है। क्रिया के कई भेद हैं। जिनका वर्णन आगे के स्थानों में किया जायेगा। ___ लोए - लोक्यते - जो केवलज्ञान से सम्पूर्ण रूप से देखा जा सके वह लोक है अथवा जहाँ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की प्रवृत्ति होती है उसे लोक कहते हैं। ___ अलोए - 'न लोकः अलोकः' - जो लोक से विपरीत है वह अलोक है। लोक में छह द्रव्य हैं। अलोक में सिर्फ एक आकाश द्रव्य ही है।
धम्मे - 'गइ लक्खणो धम्मो' - धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों की गति में सहायक होता है। यहाँ प्रदेशों को 'अस्ति' कहा है अर्थात् अस्ति का अर्थ प्रदेश है और "काय" का अर्थ है समूह। ये तीनों शब्द मिलकर धर्मास्तिकाय शब्द बनता है। प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी होने पर भी द्रव्य की अपेक्षा एक होने के कारण धर्मास्तिकाय एक है। ___ अधम्मे - 'अहम्मो ठाण लक्खणो' - जीव और पुद्गलों की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक होता है। लोक और अलोक की सीमा रेखा धर्म (धर्मास्तिकाय) और अधर्म (अधर्मास्तिकाय) के द्वारा होती है। ____बंधे - 'बध्यते आत्मा अनेन इति बन्धः। अथवा सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते यत् स बन्धः।' ____ अर्थ - जिससे आत्मा बन्धा जाय अथवा कषाय के वश जीव कर्म के योग्य जिन पुद्गलों को बांधता है। उसे बन्ध कहते हैं। इसके दो भेद हैं - १. द्रव्य बन्ध और २. भाव बन्ध।
द्रव्य बंध (रस्सी बेड़ी आदि का बंध) और भाव बंध (कर्म बंधन) के भेद से दो प्रकार का है एवं प्रकृति आदि चार प्रकार का बन्ध होने पर भी सामान्य रूप से (बंधत्व की दृष्टि से) बंध एक ही कहा गया है।
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