Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 0000000000000000000000000000000000000000०००००००००००
वसे गुरुकुले णिच्चं, जोगवं उवहाणवं।
पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लद्ध मरिहइ॥ ..- अर्थ - अपने मन वचन और काया के योगों को स्थिर करके शिष्यों को चाहिए कि, वे सदा गुरुकुल वास में अर्थात् गुरु के समीप रहे। गुरु की आज्ञा का पालन करता हुआ प्रियवचन बोलने वाला होवे। इससे वह शिक्षा के योग्य पात्र बनता है।
यहाँ पर 'आमुसंतेणं' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है जिसकी संस्कृत छाया 'आमृशता' होती है। अर्थात् 'आमृशता भगवत् पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगलादिना स्पृशता'
अर्थ - भक्ति और बहुमान के साथ भगवान् के चरण कमलों का स्पर्श करते हुए अर्थात् भगवान् की सेवा करते हुए मैंने सुना है। यह 'आमुसंतेणं' सुधर्मा स्वामी का विशेषण हो जाता है।
'आउसंतेणं' की संस्कृत छाया 'आजुषमाणेन' भी हो सकती है। जिसका अर्थ है सुनने की . इच्छा से गुरु महाराज के चरणों की सेवा करते हुए मैंने सुना है। यह विशेषण भी सुधर्मा स्वामी का होता है। ___ यहाँ भगवया शब्द आया है। जिसकी संस्कृत छाया भगवता होती है। भग' शब्द से 'वतु' प्रत्यय लग कर 'भगवत्' शब्द बना है जिसका अर्थ होता है - ऐश्वर्यादि सम्पन्न । शास्त्रों में 'भग' शब्द के छह अर्थ दिये हैं -
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयलस्य, षण्णां भग इतींगना ॥
अर्थात् - सम्पूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, संयम, श्री, धर्म और धर्म में पुरुषार्थ, ये छह भग शब्द के अर्थ हैं। इन छह बातों का स्वामी भगवान् कहलाता है। तीर्थंकर देव चौतीस अतिशय रूप बाहरी ऐश्वर्य से और केवलज्ञान केवलदर्शन रूपी आन्तरिक अतिशय रूपी ऐश्वर्य से, इस प्रकार समग्र ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण 'भगवान्' कहे जाते हैं। यहाँ अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के लिए 'भगवया' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
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