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परमत्थ-संथवो वा, सुदिट्ठ- परमत्थ- सेवणा वा वि । वावण्ण-कुदंसण-वज्जणा, य सम्मत्त - सद्दहणा ॥ 2 ॥
इअ सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं संका, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंड-पसंसा, परपासंड-संथवो ।
इस प्रकार श्री समकित रत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं - 1. श्री जिन वचन में शंका की हो, 2. परदर्शन की आकांक्षा की हो, 3. धर्म के फल में सन्देह किया हो, 4. पर पाखण्डी की प्रशंसा की हो, 5. पर पाखण्डी का परिचय किया हो और मेरे सम्यक्त्व रूप रत्न पर मिथ्यात्व रूपी रज मेल लगा हो (इन अतिचारों में से मुझे कोई दिवस सम्बन्धी अतिचार लगा हो) तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
5-16. पन्द्रह कर्मादान सहित बारह व्रतों के अतिचार
पहला स्थूल प्राणातिपात - विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं - 1. रोषवश गाढ़ा बंधन बांधा हो 2. गाढ़ा घाव घाला हो 3. अवयव' का छेद किया हो, 4. अधिक भार भरा हो, 5. भत्त पाणी का विच्छेद किया हो, इन अतिचारों में से मुझे कोई दिवस सम्बन्धी अतिचार लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
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अवयव चाम आदि का ।
{12} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र