Book Title: Shravak Samayik Pratikraman Sutra
Author(s): Parshwa Mehta
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 133
________________ 18,24,120 प्रकार बनते हैं, अत: इतने प्रकारे 'मिच्छा मि दुक्कडं दिया जाता है। प्र. 96. चौरासी लाख जीवयोनि के पाठ में बतलाए गये पृथ्वीकाय के सात लाख आदि भेद किस प्रकार बनते हैं? उत्तर चौरासी लाख जीवयोनि के पाठ में जीवों के उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा से भेद बतलाये गये हैं। उत्पत्ति स्थान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अथवा संस्थान से युक्त होता है। पृथ्वीकाय के मूल भेद 350 माने जाते हैं। इन भेदों को 5 वर्ण, 2 गन्ध, 5 रस, 8 स्पर्श और 5 संस्थान से अलग-अलग गुणा करने पर पृथ्वीकाय के सात लाख भेद बनते हैं। जैसे 350x5 वर्ण = 1750 x 2 गन्ध = 3500x5 रस = 17500 x8 स्पर्श = 1,40,000X5 संस्थान = 7,00,000 भेद होते हैं। इसी प्रकार अप्काय के 350, तेउकाय के 350, वायुकाय के 350, सूक्ष्म वनस्पतिकाय के 500, साधारण वनस्पति के 700, बेइन्द्रिय के 100, तेइन्द्रिय के 100, चौरेन्द्रिय के 100, देवता के 200, नारकी के 200, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के 200 और मनुष्य के 700 मूल भेद बतलाये हैं। इन भेदों को उपर्युक्त क्रमानुसार वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के भेदों से गुणा करने पर इनके भी इसी प्रकार भेद बनते हैं। प्र. 97. अणुव्रत किसे कहते हैं? उत्तर अणु अर्थात्-छोटा। जो व्रतों-महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होते __{131} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र

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