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प्र. 2.
उत्तर
प्र. 3. उत्तर
(4) मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से
आत्मा को हटाकर फिर से सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र में लगाना प्रतिक्रमण है।
(5) पाप क्षेत्र से अथवा पूर्व में ग्रहण किये गये व्रतों की मर्यादा के अतिक्रमण से वापस आत्म शुद्धि क्षेत्र में लौट आने को प्रतिक्रमण कहते हैं।
प्रतिक्रमण कितने प्रकार का होता है?
प्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है- (1) द्रव्य प्रतिक्रमण (2) भाव प्रतिक्रमण । (1) द्रव्य प्रतिक्रमण - उपयोग रहित, केवल परम्परा के आधार पर पुण्य फल की इच्छा रूप प्रतिक्रमण करना अर्थात् अपने दोषों की, मात्र पाठों को बोलकर शब्द रूप में आलोचना कर लेना, दोष -शुद्धि का कुछ भी विचार नहीं करना, 'द्रव्य प्रतिक्रमण' है। (2) भाव प्रतिक्रमणउपयोग सहित, लोक-परलोक की चाह रहित, यश-कीर्तिसम्मान आदि की अभिलाषा नहीं रखते हुए, मात्र अपनी आत्मा को कर्म मल से विशुद्ध बनाने के लिए जिनाज्ञा अनुसार किया जाने वाला प्रतिक्रमण 'भाव प्रतिक्रमण' है।
प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है ?
सम्यक्त्व ग्रहण करते समय यदि पहले किये हुए पापों का पश्चात्ताप रूप प्रतिक्रमण नहीं किया जाता है तो पूर्व के पापों का अनुमोदन चालू रहता है। अतः सम्यक्त्व में दृढ़ता नहीं आती। प्रमाद व अज्ञान आदि से अतिचार रूप काँटे प्राय: लग जाते हैं। यदि उनको दूर न किया जाय तो जीव विराधक {101} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र