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आत्मा में रहे हुए आस्रवद्वार (अतिचारादि) रूप छिद्रों को देखकर रोक दिया जाता है। जिस प्रकार आत्मा पर लगे अतिचारादि मलिनता को पश्चात्ताप आदि के द्वारा साफ किया जाता है। व्यवहार में भी अपराध को सरलता से स्वीकार करने पर, पश्चात्ताप आदि करने पर अपराध हल्का हो जाता
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है जैसे "माफ कीजिए (सॉरी) आदि कहने पर माफ कर दिया जाता है। उसी प्रकार अतिचारों की निन्दा करने से, पश्चात्ताप करने से आत्म-शुद्धि (पाप का धुलना) हो जाती है दैनिक जीवन में दोषों का सेवन पुनः नहीं करने की प्रतिज्ञा से आत्म-शुद्धि होती है।
प्र. 10. जिसने व्रत धारण नहीं किये हैं, उसके लिए क्या
प्रतिक्रमण करना आवश्यक है ?
जिसने व्रत धारण नहीं किये हैं, उसको भी प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। क्योंकि आवश्यक सूत्र बत्तीसवाँ आगम गया है । आगम का स्वाध्याय आत्म-कल्याण तथा निर्जरा का कारण है। प्रतिक्रमण एक ऐसी औषधि के समान है जिसका प्रतिदिन सेवन करने से विद्यमान रोग शान्त हो जाते हैं, रोग नहीं होने पर उस औषधि के प्रभाव से वर्ण, रूप, यौवन और लावण्य आदि में वृद्धि होती है और भविष्य में रोग नहीं होते। इसी तरह यदि दोष लगे हों तो प्रतिक्रमण द्वारा उनकी शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगे हों तो प्रतिक्रमण भावों और चारित्र की विशेष शुद्धि करता है। इसलिए प्रतिक्रमण सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है।
{104} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र
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