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सवैया - गुण है छत्तीस पूर, धरत धरम उर । मारत करम क्रूर, सुमति विचारी है ।।1 ॥ शुद्ध सो आचारवन्त, सुन्दर है रूप कंत । भणिया सब ही सिद्धांत, वाचणी सुप्यारी है ॥2॥ अधिक मधुर वेण, कोइ नहीं लोपे केण । सकल जीवों का सेण, कीरति अपारी है ॥13 ॥ कहत हैं तिलोक रिख, हितकारी देत सीख | ऐसे आचाराज जी को, वन्दना हमारी है ॥ 4 ॥
ऐसे श्री आचार्य जी महाराज ! न्याय पक्षी, भद्रिक परिणामी, परम पूज्य, कल्पनीय, अचित्त वस्तु के ग्रहणहार, सचित्त के त्यागी, वैरागी, महागुणी, गुणों के अनुरागी, सौभागी हैं। ऐसे श्री आचार्य जी महाराज आपकी दिवस सम्बन्धी अविनय आशातना की हो तो हे आचार्य जी महाराज ! मेरा अपराध बारम्बार क्षमा करिए। मैं हाथ जोड़, मान मोड़ शीश नमाकर तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार वन्दना नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नम॑सामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि ।।
आप मांगलिक हो, आप उत्तम हो, हे स्वामिन् ! हे नाथ ! आपका इस भव, पर भव, भव भव में सदाकाल शरण होवे । 41. चौथे पद श्री उपाध्याय जी महाराज 25 गुण करके विराजमान, ग्यारह अंग, बारह उपांग, चरण सत्तरी, करण सत्तरी ये पच्चीस
{35} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र