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घटिकांड
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इसके सिवाय इन्द्रियों की अपनी अपनी अपर्याप्त कारणों से या किसी बाधा वे विशेष अवस्था का भी संवेदन पर प्रभाव पडता कारण जहा भ्रम या संशय होता है वहां में है। एक श्रादमी को साधारण अवस्था में सौ प्रत्यक्ष की जाच अन्य प्रत्यक्षों से या तर्क आदि डिगरी की चीज कुछ गरम मालूम होगी , परन्तु से होजाती है। जब उसे १०३ डिग्री बुखार होगा तो सौ डिग्री अनुभव की दुहाई (इदो पे खूहो) की चीज ठंडी मालूम होगी । साधारण अवस्था में
प्रत्यक्ष एक अनुभव है और परीक्षकता में नीम कडवी मालूम होती है , किन्तु सांप का विष
अनुभव सब से बड़ी और अन्तिम कसौटी है । बढ़ने पर कड़वी नहीं मालूम होती, और पित्तज्वर में दूध भी कडया मालूम होता है। किसी
परन्तु कल्पना के स्वप्नो को अनुभव नही कह जानवर को साधारण अवस्था में भी नीम कडवी सकत । बहुत से लोग भूत-पिशाचो को, अलौनहीं मालूम होती । यह सब इन्द्रियो की विशेष
किक चमत्कारो का, अनुभव होने की दुहाई देकर अवस्था के कारण होता है। सापेक्षवाद का ध्यान
अविश्वसनीय बातो का समर्थन करने लगते हैं। रखने से इनकी गड़बड़ियों से बचा जाता है।
जब कि ये सब एक तरह के स्वप्न होते है। जिस
तरह के विचार हमारे मन में या वासनाओ में प्रत्यक्ष में सापेक्षवाद का विचार सिर्फ गति ,
भरे रहते है वे साधारणत: स्वप्न में इस तरह या इन्द्रिय की अवस्था के कारण ही नहीं करना
करता दिखाई देने लगते हैं जैसे प्रत्यक्ष दिखाई देते हो।
, पड़ता किन्तु मस्तिष्क के कारण भी करना पड़ता है, क्योंकि संवेदन का मुख्य भावार तो मस्तिष्क ,
. ये स्वप्न सोते समय आते हैं। पर भावना की है। इन्द्रिय के द्वार से मस्तिष्क तक जैसी लहरे .
तोत्रता होनेपर जागते समय भी दिखाई देने जाती हैं वैसा संवेदन होता है । पनार्थ के न होने
लगते हैं। प्रेमोन्माद की अवस्था में श्रादमी अपने पर भी अगर वैसी लहरें मस्तिष्क तक पहुँचें तो
। प्रिय को शून्य में ही प्रत्यक्ष के समान देखता है, मस्तिष्क उस पदार्थ का संवेदन करने लगेगा।
और उसकी तरफ दौड़कर दीवार से या खम्में पदार्थ के बिना भी कृत्रिम रूपमें वैसी लहरे
आदि से टकराजाता है। यही वृत्ति कभी कभी मस्तिष्क में पहुँचायी जासकती है इसलिये तीव्र उपासकों में देखी जाती है। वे ऐसी ही तीव्र मस्तिष्क उसका संवेदन कर सकता है। चित्रपट कल्पना से अपने भगवान को अपने इच्छित रूप में इसका अनुभव सदा होता है। सिनेमा के पर्दे में देखते है । यही कारण है कि भिन्न-भिन्न सम्न' पर भाग पानी मकान आदि कुछ नहीं होता, दाय के तीनभावुक उपासकों को भगवान या इष्ट' सिर्फ उस तरह की किरणें पर्देपर से आंखोंपर देव भिन्न-भिन्न रूप मे दिखाई देते हैं। इसी
आती है इसलिये उन पदार्थों के न होनेपर भी यह लोकोक्ति प्रचलित हैउन पदार्थों का मान वहा होता है । कृत्रिमता से
जाकी रही भावना जैसी। अन्य इन्द्रियों के विषय में भी ऐसा किया जास
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥
भावनाओ के इस प्रयुद्ध रूप को । इसप्रकार प्रत्यक्ष सब से अधिक स्पष्ट, सब से अधिक साधार, इसलिये सबसे अधिक प्रमाण
श्रा प्रत्यक्ष न कहना चाहिये। ये कल्पना हैं
इन कल्पित भावनाओं से एक तरह का श्रा होनेपर भी उसकी जाच करना पड़ती है, उसके
लिया जासकता है पर ये परीक्षकता की बारे में सतर्क (तर्कसहित) रहना पड़ता है। पर ऊपर जो गड़बड़ियों वतलाई गई हैं उनमें
नहीं बन सकीं। यदि सापेक्षवाद का ध्यान रखा जाय तो प्राय. हा। जीवन व्यवहारमें या मानव प्रकृति सभी उलझनें दूर होजाती हैं। .
अभ्यास मे जो अनेक प्रकार के अनुभव मिलते