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विषय मे रखते है। विशेषता इतनी है कि वञ्चना के द्वारा भी गुरु बनजाने की सम्भावना है इस लिये गुरु मूढ़ता से बचने के लिये कुछ परीक्षा भी करना चाहिये। गुरु जीवित व्यक्ति है इसलिये उसके विषय में अच्छी तरह कुछ कहा नहीं जासकता, न जाने कल उसका क्या रूप दिखलाई दे। इसलिये देव के विषय मे आदरभाव की जितनी आवश्यकता है उतनी गुरु के विषय में नहीं । उसको तो परीक्षा करके ही मानना चाहिये । फिर भी स्वपर कल्याण की दृष्टि से जहाँ बिरोध करना आवश्यक हो वही विरोध करना चाहिये। वह विरोध अहंकारवश परनिन्दाका रूप धारण न करले । धूर्त गुरुओं का विरोध करना तो जन साधारण की सेवा है।
इन चार प्रकार की सूचनाओं पर ध्यान रक्खा जाय तो बन्धुपूज्यसमादर की नीति का ठीक तरह से पालन हो सकता है।
इसप्रकार पारिस्थितिक महत्ता, सार्वजनिक कृतज्ञता और बन्धुपूज्यसमादर से वैकासिक नरतमता रहनेपर भी धर्म समभाव के पालन में बाधा नहीं आती।
कुछ लोगो के मनमे धर्म-संस्थाओं के विषय यह भ्रम है कि वे अमुक वर्ग के षड्यन्त्र का परिणाम हैं। जैसे कुछ लोग कहते है कि, धर्म इसलिये खड़े किये गये जिससे सामन्त और पुजीपति लोग जनता को चूसते रहें और जनता परलोक की आशा मे विद्रोह न करे पिसती रहे और चुप रहे ।
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पर यह बड़ा भारी भ्रम है । निःसन्देह धर्मसंस्थाओ का काफी दुरुपयोग सामन्तो ने पूँजीपत्तियो ने उच्च जाति कहलाने वालों ने तथा कुछ चालाक आदमियों ने किया है पर इल दुरुप योग को धर्मसंस्थाओं का ध्येय बताना ऐसा ही है जैसे सड़को का निर्माण चोगे के सुभीते के लिये बताना । निःसन्देह चोर सड़को का उपयोग कर
लेते है पर सड़कें चोरों के लिये बनाई नहीं जातीं। धर्मों ने हिंसाका, ईमान का, शील का त्याग का, तान का, अपरिग्रह का उपदेश दिया और इसी तरह के संस्कार डाते हैं। और इससे जनता ने काफी लाभ भी उठाया है पर इसके साथ किसी किसी पूँजीपति ने भी लाभ उठाया । सैकड़ो लोगों की चोरी रुकी तो दो-चार श्रीमानों की भी चोरी रुकी. इसलिये यह नहीं कहां जा सकता कि चोरी रोकने का काम श्रीमानो के स्वार्थ के लिये किया गया था श्रीमान तो अपने बड़े साधनो के बलपर यों ही चोरी से सुरक्षित रह सकते थे । विशेष लाभ तो साधारण लोगों को हुआ ।
सामन्तवाद आदि इसके परिणाम नहीं हैं। अगर जनता सामन्तो को मिटा देती तो भी पुण्यपाप का फल का सिद्धान्त लागू होता। कहा जा सकता था कि व सामन्तो का पुण्य क्षीरा
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तरतमताका दूसरा भाव भ्रमजन्य (भूहोज) होगया इसलिये अब वे सामन्त नहीं रह सकते, है उसका त्याग करना चाहिये । पूजीपति नहीं रह सकते । युद्धो में सैकड़ों सामन्त जवानी में मारे जाते थे या पराजित होकर वनवाली होनाते थे इसमें यदि कर्म सिद्धान्त वाधक नहीं होता था तो जनता क्रान्ति करके यि सामन्तों को या श्रीमन्तो को मिटा देती तो कर्मसिद्धान्त - पुण्यपापफल सिद्धान्त क्या वाघा डालता ? बौद्ध धर्म के पैदा होने के पहिले हो मगध में गणतन्त्र चालू होगये थे इसमें कर्म सिद्धान्तने या ईश्वरवाद ने कोई बाधा न डाली थी।
परलोक फल के भय और श्राशा ने भी मनुष्य के हृदय मे पाप से डरने की और परोपकारादि पुण्य करने की भावना पैदा की। यह भी धर्म-सस्था का काम था ।
आज सारी दुनिया में समाजवाद (योग्यतानुसार कार्य और कार्य अनुसार लेना ) और साम्यवार अर्थात् कुटुम्वाs ( योग्यतानुसार कार्य और आवश्यकतानुसार लेना ) भी चालू होजाय तो भी कर्मवशद उसमें बाधा न डालेना । जब मुकम्प प्लेग आदि के द्वारा सामूहिक संहार