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उत्तर - पर न्यायाधीश को यह भी सोचना चाहिये कि अगर मेरे घर की चोरी हुई होती तो मैं भी चाहता कि चोर को दण्ड मिले। इसप्रकार स्वोपमता का विचार सिर्फ चोर के विषय में ही नहीं करना चाहिये किन्तु उसके विषय में भी करना चाहिये जिसकी चोरी हुई है। अपराधी या पापी लोगों का विचार करते समय सामूहिक हित के आधार पर बने हुए नैतिक नियमों की अवहेलना नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न -यदि अपराधी को दण्ड विधान का नियम ज्यो का त्यों रहा तो चिकित्स्यता का क्या उपयोग हुआ ?
उत्तर - दंड भी चिकित्सा का रंग है। अपराध एक बीमारी है उसकी चिकित्सा कई तरह से होती है । सामाजिक सुव्यवस्था के लिये जहाँ दण्ड आवश्यक हो वहाँ दंड देना चाहिये पर व्यक्ति पर रोषवश प्रतिदरह न हो नाये इसका खयाल रखना चाहिये। और हृदय के भीतर उसके दुःख से सहानुभूति और दया होना चाहिये । यही दंड के चिकित्सापन का चिह्न है ।
प्रश्न- इह यदि चिकित्सा है तो मृत्युदंड तो किसी को दिया ही क्यों जायगा ? क्योंकि मरने पर उसकी चिकित्सा कैसे होगी ?
उत्तर – चिकित्सा का काम सिर्फ आये हुए रोग को दूर हटाना ही नहीं है किन्तु रोगा को पैदा न होने देना और उनको उसे जितन होने देना भी है। मृत्यु-दंड का भय लाखों पापियों के मन में पाप उत्तेजित नहीं होने देता इसलिये Best विधान भी चिकित्सा का अंग है। निसन्देह मृत्युदण्ड पानेवाले की चिकित्सा इसमें
नहीं हो पाती है परन्तु श्रन्य लाखो की चिकित्सा होती है। समाज शरीर के स्वास्थ्य के लिये उसके किसी विषैले अश को हटाना पड़े तो हटाना चाहिये ।
प्रश्न -- मानलो क्षमा करने का उसपर seat प्रभाव पड़ता है पर जिसका उसने अप
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राध किया उसको असन्तोष रहता है। तब चिकित्सा के लिहाज से उसे क्षमा किया जाय या पीड़ित के सन्तोष के लिये पीड़क को दंड दिया जाय ?
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उत्तर- यदि पीड़ित को सन्तोष न हो तो पीड़क को उचित दंड मिलना चाहिये । अन्यथा पीडित के मन में प्रतिक्रिया होगी और वह किसी दूसरे उपाय से बदला लेने की कोशिश करेगा ? चदले में मर्यादाका अतिक्रम और अन्धाधुन्धी होने की पूरी सम्भावना है। अगर वह बदला न भी ले तब भी उसका हृदय जलता रहेगा उसे न्यायके प्रति अविश्वास हो जायगा। क्षमा का उपयोग अधिकतर अपने विषय में करना चाहिये। अगर अपना हृदय निर्वैर होगया हो और क्षमासे पीड़क सुधरने की आशा हो तब क्षमा करना उचित है। प्रश्न- कभी कभी ऐसा अवसर आता है। कि कोई कोई काम अपने को बुरा नहीं मालूम होता और दूसरे को बुरा मालूम होता है। जैसे अपने को एकान्त में बैठना अच्छा मालूम होता हो दूसरों को बुरा मालुम हो, घास खाना अपनेको बुरा मालूम होता हो और घोड़े को अच्छा मालूम होता हो, अपने को कपड़ा पहनना अच्छा मालुम हो दूसरों को बुरा मालूम होता हो, ऐसी हालत में स्वोपमता का विचार हम उनके बारे में करलें तो हमारी और उनकी परेशानी है। व्यव - हार में भी बड़ी अड़चन आयगी ।
उत्तर- स्त्रोपमता को विचार कार्य की रूपरेखा देखकर न करना चाहिये किन्तु उसका प्रभाव देखकर करना चाहिये । अन्तिम बात यह देखना चाहिये कि वह कार्य सुखजनक है या दुखजनक । सुख जैसा हमें प्यारा है वैसा दूसरों को भी प्यास है इसलिये जैसे हम अपने सुख की पर्वाह करते हैं उसी प्रकार दूसरों के सुख की भी करना चाहिये । विचार सुखदुखका है इसलिये जो काम हमें दुखजनक हो और दूसरे को सुखजनक हो वह काम हम करेंगे। अगर बीमारी के कारण हमें भोजन की जरूरत नहीं है और भूख के कारण दूसरे को है तो अपने समान