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स्वार्थ के लिये होगा, रूपादि के नष्ट होने पर या उपयोग है उसी में उनका उपयोग करना चाहिये। स्वार्थ नष्ट होने पर नष्ट हो जायगा पर योगी का नियम, जोकि अनेक दृष्टियों के विचार से बनाये रेम कर्तव्य समझकर होगा वह स्वार्थ नष्ट होने जाते हैं उनका भी दुरुपयोग हो जाता है फिर पर भी कर्तव्य समझकर रहेगा। इसलिये मोही भावना तो सिर्फ किसी एक दृष्टि के आधार से की अपेक्षा योगी का प्रेम अधिक स्थिर है। बनाई जाती है उनकी दृष्टि के विषय में जरा भी
२ क्षणिकत्वभावना (अलोपेरोभावो)-धन गड़बड़ी हुई कि वे निरर्थक ही नहीं, अनर्थकर हो वैभव सुख दुःख आदि क्षणिक हैं, अनित्य हैं, जाती है। इसलिये यह बात सदा ध्यान में रखना किसी न किसी दिन चले जॉयगे. इस प्रकार की चाहिये कि हर एक भावना और नियम स्वपरभावना से भी अवस्थासमभाव पैदा होता है। हित या विश्वकल्याण के लिये है । स्वपरहित में हर एक आदमी को अपने मन में और अपने थोडी मी बाधा हो तो समझो उस भावना या कमरे में यह लिख रखना चाहिये कि दिन नियम का दुरुपयोग हो रहा है। चले जॉयगे। अगर ये दिन वैभव के हैं तो भी ३ लघुत्वभावना (कीतोमायो)- अमुक चले जायगे इसलिये इनका अईकार न करना चीज नहीं मिली, अमुक ने ऐसा नहीं किया चाहिये । अगर ये दिन दु.ख के हैं तो मी चले इत्यादि आशाओं का पाश इसलिये विशाल होता जॉयगे इसलिये दुःख में घबराना न चाहिये। जाता है कि मनुष्य अपने को कुछ अधिक समइस प्रकार क्षणिकत्व भावना से अवस्थासमभाव कता है इसलिये उसका अहंकार पद-पद पर उमपैदा होता है, सुख दुःख में शान्ति होती है। इता है और उसे दुखी करता है, साथ ही जगत
प्रश्न-इस प्रकार अवस्थासमभाव से तो को भी दुखों करता है। पर मनुष्य अगर यह मनुष्य निम्द्यमी होजायगा। अन्याय हो रहा है सोचले कि इस विशाल विश्व में में कितना लघु तो वह सहन कर जायगा कि आखिर यह एक हूं बुद्र हूँ। प्रकृति का छोटासा प्रकोप, मेरी छोटीदिन चला ही जायगा, ऐसा आदमी राष्ट्रीय सी गलती, इस जीवन को नष्ट कर सकती है। सामाजिक अपमानों को भी सह जायगा। जगत में एक सं एक बढ़कर धनी, बली, स्वस्थ,
उत्तर-भावनाएँ कर्तव्य में स्थिर करने के विद्वान, अधिकारी, तपस्वी, कलाकार, वैज्ञानिक, लिये हैं, अगर भावना विश्वकल्याण में बाधक कवि, सुन्दर, यशस्वी पड़े हुए हैं, मैं किस किस होती है तो वह भावनाभास (निमावो) है। बात में उनका अतिक्रमण कर सकता हूँ। अगर
दुनिया ने मुझे महान नहीं समझा तो इसमें क्या अवस्थासमभाष का प्रयोजन यह है कि
आश्चर्य है । मरुस्थल में पड़े हुए रेती के किसी मनुष्य सुख दु:ख में सुब्ध होकर कर्तव्यहीन न
कण को पथिकों ने नहीं देखा, नहीं ध्यान दिया, होजाय। मोह और चिन्ता उसके जीवन को
तो इसमें उस कप को बुरा क्यों लगना चाहिये। कर्तव्यशून्य न बनादें । क्षणिकत्व भावना का इस प्रकार लघुत्व भावना से मनुष्य का अहंकार उपयोग भी इसी तरह होना चाहिये। शान्त होता है और अपमान या उपेक्षा का कष्ट
क्षणिकत्व भावना के समय यह विवेक न कम हो जाता है। पर यह ध्यान रहे कि लघुत्व भूलना चाहिये कि विपत्ति और सम्पत्ति क्षणिक भावना आत्मगौरव नष्ट करने के लिये नहीं है। होने पर भी प्रयत्न करने से कल जानेवाली प्रभ-लघुस्व भावना से अहंकार नष्ट हो विपत्ति आज ही जा सकती है और आज जाने- जाता है फिर आत्मगौरव कैसे बचेगा ? अहंकार वाली सम्पत्ति कल तक रुक सकती है। और श्रात्मगौरव मे क्या अन्तर है?
भावनाओं के विषय में यह खास ध्यान में उत्तर-अहंकार में दूसरे की अनुचित रखना चाहिये कि जिस कार्य के लिये उनका अवहेलना है, आत्मगौरव में अपने किसी विशेष