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जिससे वह पशु आदि की हत्या न करे। पर सर्प को इस प्रकार सिखाया नही जा सकता इस लिये वहा योगी उपेक्षा कर सकता है, या बहुत से मेढकों की रक्षा के विचार से सर्प को मार भी सकता है। मेढक के लिये प्राण देना ऋतुचित है। क्योंकि अपने राय देने से भी सर्ग जातिपर स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता, जिससे एक मनुष्य की हानि हजारो सर्पों के स्वभाव से परिवर्तन करके लाभ में परिणत हो सके।
मृत्यु से निर्भयता का मतलब यह नहीं है कि आवश्यकता अनावश्यकता उचितता अनुFeder for विचार किये बिना मौन के मुँह में कूदता फिरे। किन्तु उसका मतलब यह कि अगर किसी कारण मृत्यु का अवसर उप स्थित हो जाय तो विना किसी विशेष क्षोभ के वह भरने को भी तैयार रहे। जीवन के किसी विशेष ध्येय की पूर्ति में मौत का सामना करने की आवश्यकता ही हो तो वह उसके लिये भी तैयार रहे। योगी अवस्थासमभावी होने से साधारण जन के समान मृत्यु से नहीं डरता । जब वह स्वपर कल्याण के लिये जीवन को बन्धन समझता है, तब वह जीवन का त्याग कर देता है, एक तरह का समाधिकरण कर लेता है, यही उसकी मृत्यु से निर्भयता है ।
मृत्यु से निर्भय होने के विषय में जो बात कही गई है बड़ी बात अन्य निर्भयताओ के विषय में भी है। आवश्यक प्रसंग आनेपर वह सच कुछ त्याग सकता है यही उसकी निर्भयता है । यद्यपि आवश्यकता का मापतौल ठीक ठीक तरह नहीं किया जा सकता इसलिये योगी एक तरह से अज्ञेय होता है फिर भी विचारक मनुष्य योगी की परिस्थिति का विचार करके निर्णय कर सकता है।
फिर भी निर्भयता का परखना कठिन ही है । अनेक अवसरों पर इस विषय में भारी भ्रम होजाता है। एक स्त्री पति के मरने पर अपने प्राण दे देती है, यह उसकी मोहजनित कायरता है पर साधारण लोग इसे प्रेमजनित निर्भयता सम
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कते हैं। वैधव्य की असुविधाओं से डर कर वह प्राण देती है इसलिये उसकी निर्भयता से सम यता अधिक है।
कोई भी आदमी धन के लिये यश की पर्वाह न करें, नाम हो या वन्नाम किसी तरह धन कमाना चाहिये यह उसकी नीति हो और कहे मुझे अपयशका डर नहीं है, तो यह उसकी बचना है। इससे तो केवल यही मालूम होता है कि वह यश की अपेक्षा धन का अधिक लोभी है । किसी एक चीज का अधिक लोभी होने के कारण दूसरी चीज की पर्वाह न करना निर्भयता नहीं है। निर्भयता है वहाँ, जहाँ कल्याण पथ में आगे बढ़ने के लिये किसी की पर्वाह नहीं की जातीं ।
कोई कोई लोग नामवरी के लिये धन की पर्वाह नहीं करते यह भी निर्भयता नहीं है। यह तो धन की अपेक्षा यश का अधिक लोभ हुआ, ऐसा आदमी यश की आशा न रहने पर कर्तव्य का त्याग कर देगा। यह निर्भयता नहीं है। निर्भयता सर्वतोमुखी होना चाहिये। किसी चीज की हम चाह नहीं है रुचि नहीं है या उससे हमारी हानि नही हो सकती तो उसकी तरफ से लाप वही बताने से अरुचि या शक्ति का परिचय मिलेगा निर्भयता का नहीं। निर्भयता वहां है जहा रुचि हो तो भी कर्तव्य के लिये उसकी पर्वाह न की जाय, हानि हो सकती हो फिर भी कर्तव्य के लिये उसकी पर्वाह न की जाय ।
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मतलब यह 'है कि योगी को निर्भयता इस वात में नहीं है कि उसके पास शक्ति अधिक है या दुखी होने की परिस्थिति नहीं है परन्तु इस वान मे है कि वह अवस्थासमभावी है। वह नाट्य भावना आदि का चिन्तन करता रहता है । यह निर्भयता स्थायी निर्भयता है और इस निर्भयता को पाकर मनुष्य अन्याय करने पर उतारू नहीं होता ।
निमित्त के भेद से भय के भेद हैं पर बहुत यहा कुछ खास खास भयों का उल्लेख कर दिया