Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 252
________________ [२५४ ] सत्यामृत कहा जाता है कि जिन्हें रोटी नहीं मिलती उन्हें ईमानदारी खाना उनका मजाक उड़ाना है । | परन्तु रोटी मिलने के लिये भी ईमानदारी सिखाना जरूरी है। कल्पना करो मेरे पास इतना पैसा है कि मैं साफ सफाई के लिये या और भी काम के लिये दो एक नौकर रख सकता हूँ | मैंने दो एक करीब आदमियों को raar भी, पर देखा कि वे चोर हैं, उनके ऊपर मुझे नजर रखना चाहिये, पर नजर रखने का काम काफी समय लेता है इसलिये मैंने नौकरों को छुड़ा दिया। सोचा इन लोगों की देख रेख करने को अपेक्षा अपने हाथ से काम कर लेना अच्छा। आदमी वेतन या मजूरी में तो रुपये भी दे सकता है पर चोरी में पैसा नहीं दे सकता इस कारण मुझे पैसे के लिये रुपये बचाने पड़े। वह गरीब नौकर दो एक बार कुछ पैसों की चोरी करके सदा के लिये रुपये खो गया। इस प्रकार बेईमानी गरीबी और बेकारी बढ़ाने को कारण हो । मनुष्य को ईमान हर हालत में जरूरी है और गरीबों में तो और भी जरूरी है क्योंकि बेईमानी का दुष्परिणाम सहना गरीबी में और कठिन हो जाता है। गरीब हो या अमीर, बेईमानी विश्वासघात, चुगलखोरी आदि वा अमीर गरीव as को नुकसान पहुँचाती है। एक बार की विश्वासघातकता हजारों सज्जनों के मार्ग में रोड़े अटकाती है। अगर कोई आदमी हम से एक पुस्तक माँगकर ले जाता है या एक avar aurt ले जाता है और फिर नहीं देता तो इसका परिणाम यह होता है कि भले से भले areit को भी मैं रुपया उधार नहीं देता या पढ़ने को पुस्तक नहीं देता। विश्वासघातकता या लेनदेन के मामले में अपने वायदे को पूरा न करना ऐसी बात है कि वह किसी भी हालत में की जाय उसका दुष्परिणाम काफी मात्रा में होता है । हमारी छोटी सी बेईमानी के कारण भी जान सुविधाओं से वंचित रहते हैं। इस लिये अमीरी हो या गरीबी, अपनी भलाई के लिये इस प्रकार की अन्तः शुद्धि आवश्यक है । जिनमें यह श्रन्त शुद्धि भी नहीं है और बाह्यशुद्धि भी नहीं है चाहे वे अमीर हो, गरीब हों, ग्रामीण हों नागरिक हो, शिक्षित हों अशिक्षित हों, प्रतिष्ठित हो प्रतिष्ठित हों, उन्हें मनुष्य नही मनुष्याकार जन्तु ही कहना चाहिये । २ बाह्यशुद्धाशुद्ध वे हैं जिन में ईसा aara ara शान्ति आदि तो उल्लेखनीय नहीं हैं परन्तु साफसफाई का पूरा खयाल रखते हैं। शरीर स्वच्छ मकान बखादि स्वच्छ, भोजन स्वच्छ इस तरह जहाँ तक हृदय के बाहर स्वच्छता का विचार है वे स्वच्छ हैं पर हृदय स्वच्छ नहीं है। साधारणतः ऐसे लोग सभ्य श्रेणी में गिने जाते है परन्तु वास्तव में वे सभ्य नहीं होते । सभ्यता के लिये बाहयशुद्धि के साथ श्रन्तःशुद्धि भी चाहिये 1 बहुत से लोग शुद्धि के नामपर अशुद्धिबहुत बताते हैं और रही सही अन्तःशुद्धि का भी नाश करते हैं। वे शुद्धि के नामपर मनुष्यों से घृणा करना सीख जाते हैं। धाछूत की बीमारी को व शुद्धि का सार समझते हैं। अपनी जाति के आदमी के हाथ का गढ़ा से गंदा भोजन करेंगे परन्तु दूसरी जाति के आदमी के हाथ का स्वच्छ और शुद्ध भोवन भी करेगे। वे सिर्फ जाति-पांति में ही शुद्धि - अशुद्धि देखते हैं। हाथ मास के कल्पित भेद में ही शुद्धि अशुद्धि के भेद की कल्पना करते हैं। वे वास्तव में बाह्य शुद्ध भी कठिनता से हो पाते हैं, एक तरह से अशुद्रध रहते हैं । ܐ प्रश्न- बाह्य शुद्धि मे खानपान की शुद्धि का मुख्य स्थान है क्योकि शरीर का भोजन शुद्धि sarees a free बन्ध है। खानपान में भोजन सम्बन्धी संस्कृति देखना जरूरी है। एक जैन का एक मुसलमान के यहां भोजन का मेल कैसे बैठेगा ? रक शुद्धि आदि की बात भी निर पंक नहीं है, मा-बाप के संस्कार सन्तान में भी

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