Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 220
________________ । २२२ । सत्याभूत दूसरी को पुष्ट करना चाहे तो उनके स्वार्थ में अन्तर पड़ने से वह सम्मिलन नष्ट हो जायगा | वह देश अशान्ति चौर निर्धतना वा घर धनकर नष्ट होजायगा, गुलाम बन जायगा पर अगर वह सम्मिलन, संस्कार- प्रेरित हो, नों में सांस्कृ विक एकता होगई हो, तो तीसरी शक्ति को उनके अलग अलग दो टुकड़े करना असम्भव होजा युगा । संस्कृति, स्वार्थी की पर्वाह नहीं करती, वह तो स्वभाव बन जाती है जो स्वार्थ नष्ट होनेपर भी विकृत नहीं होती । प्रश्न- मारतवर्ष में संस्कारों का बहुत रिवाज है, बच्चा जब गर्भ में आता है तभी से उसके ऊपर संस्कारों की arr लगना शुरू हो जाती है । सोलह संस्कार तो प्रसिद्ध ही हैं पर इससे भी अधिक संस्कार इस देश में होते हैं पर इन संस्कारा के होनेपर भी कुछ सफलता दिखाई नहीं देती। इसलिये संस्कारप्रेरितता का कोई विशेष प्रयोजन नहीं मालूम होता । उत्तर --- संस्कार के नाम से जो मन्त्रजाप किया जाता है वह संस्कार नहीं है। आज तो वह विलकुल निकम्मा है परन्तु जिस समय उसका कुछ उपयोग था उस समय भी सिर्फ यही कि बच्चे के अभिभावको को बच्चे पर अमुक संस्कार डालने की जिम्मेदारी का ज्ञान होजाय । ज्ञान संयम विनय आदि के संस्कार मिनिट दो मिनिट के मंत्र जाप से नहीं पड़ सकते उस के लिये वर्षो की तपस्या या साधना चाहिये । I मार्गपर मनुष्य सरलता से जा सकता है। एक मनुष्य कठिन अवस्था में भी मांस नहीं खाता, काम पीड़ित होनेपर भी माता बहिन बेटी के विषय संयम रखता है यह संस्कारका ही फल है । स्वार्थ और कानून दंड ] जहाँ रोक नहीं कर पाता वहाँ संस्कार रोक कर जाता है। संस्कार के अभाव में कभी कभी बुद्धि से जंचे हुए अच्छे काम करने में भी मनुष्य हिचकने लगता है । एक मनुष्य सर्वधर्म समभाव को ठीक समझने पर भी उसे व्यवहार में लाने में कुछ लज्जित सा या हिचकिचाता-सा रहता है इसका कारण संस्कार का है। सैकड़ो बड़े बड़े काम ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य संस्कार के वश में होकर बिना किसी विशेष प्रयत्न के सरलता से कर जाता है और सैकड़ों छोटे छोटे काम ऐसे हैं जिन्हे मनुष्य इच्छा रहने पर भी नहीं कर पाता संस्कार का लाभ यह है कि मनुष्य बुद्धि पर विशेष जोर दिये विना कोई भी काम कर सकता है या बुरे काम से बचा रह सकता है | मनुष्य आज पशु से जुदा हुआ है उसका कारण सिर्फ बुद्धि-वैभव ही नहीं है किन्तु संस्कारों का प्रभाव भी है। संस्कार एक तरह की छाप है जो बारबार हृदयपर लगने से दृढता के साथ अकित होजाती | अमुक विचारों का हृदय में चारवार चिन्तन कराने से, उसको कार्यपरिणत करने से, वैसे ही दृश्य वारपार सामने आने से हृदय उन विचारों में तन्मय होजाता है। अनुभव से, तर्क से, महान् रुपों के वचन अर्थात शास्त्र से, और सत्संगति से भी यह तन्मयना आती है। इकार संस्कार पड़ते हैं ये मनुष्य का स्वभाव बन जाते हैं। मका परिणाम यह होता है कि किसी निर्दि उसको दूर करने के लिये ये तीन उपाय हैं संस्कार, मनुष्य के हृदय में जो जानवर मौजूद है स्वार्थ और दंड । पहिला व्यापक है, निरुपद्रव है और स्थायी है, इस प्रकार सात्विक है उत्तम है। दूसरा राजस है मध्यम है। तीसरा वामस है, जघन्य है । मानव हृदय का पशु जब तक मरा नहीं है तब तक तीनों की आवश्यकता है। परन्तु जब तक मनुष्यता संस्कार का रूप न पकड़ले तब तक मनुष्य चैन से नहीं सो सकता । पैरों के नीचे दबा हुआ सर्प कुछ कर सके या न कर सके पर वह कुछ कर न सके इसके लिये हमारी जितनी शक्ति खर्च होती है, प्रतिक्षण हमें जितना चौकन्ना रहना पड़ता है, उससे किसी तरह जिन्दा तो रहा जा सकता है पर चैन नहीं मिलती दंड या कानून का उपाय ऐसा ही है। मानव हृदय के भीतर रहने वाली पशुता से अपनी रक्षा करने के लिये स्वारी का सहारा लेना

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