Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 241
________________ भावना ही नही है किन्तु आर्थिक स्वामित्व की आकांक्षा भी है, बल्कि यही कारण अधिक है । अन्य सम्पत्ति पर तो सारे कुटुम्ब का हक रहता है और उसकी मर्जी के विरुद्ध सहज में ही उसका उपयोग किया जा सकता है इसलिये नारी भूषणों के रूप में सम्पत्ति का संग्रह करती है। इसे भी 1. लोग विलास कहते हैं जब कि इसका मुख्य कारण आर्थिक है। विलास-प्रियता का एक कारण और है कि श्रार्थिक पराधीनता प्राप्त नारी को पुरुष ने अपने विलास की सामग्री बनाया। अगर नारीमे विलास नहीं मिला तो पुरुष इधर उधर आखे डालने लगा इसलिये भी नारी को विलासिनी बनना पड़ा । पुरुष भी इसे पसन्द करता है । वह इससे घृणा करता है तभी, जब विलास के वह साधन नही जुटा सकता या उसके अन्य कामों में बाधा श्राती है। इसलिये विलासिता का दोप केवल नारीपर नहीं डाला जा सकता, इसका उत्तरदायित्व व्यापक है, सामाजिक है। ६ अनुदारता (नोमंचो ) - नारी का कार्य - क्षेत्र घर है इसलिये उसके विचारों में संकुचि तता आ गई है । यह नारीत्व का दोष नहीं है, कार्यक्षेत्र का दोष है। आम तौर पर पुरुषों में भी यह क्षेष पाया जाता है । एक बात यह है कि नारीका सन्तान के साथ घनिष्ट सम्पर्क होने से पहिले वह इस छोटे से संसार को बना लेना चाहती है, अमुक अश मे यह आवश्यक भी है। फिर भी अनुदारता कम करने की जो जरूरत है उसकी पूर्ति वहां जल्दी हो जाती है जहा नारी घर के बाहर काफी निकलती है और थोड़े बहुत अशो में सामाजिक आदि व्यापक कार्यों में भाग लेती है। ७ कलहकारिता (बूरी ) - यह पुरुषों और नारियो में एक समान हैं। घर के बाहर रहने से पुरुष के हाथ में बडी शक्तिया श्रा गई है इसलिये वह कलम से और तलवारो से कलह करता है, नारिया मुड से कलह करती हैं। पुरूष को घर के काम नहीं करना पडते इसलिये वह धरू कलह कोड [२४३] को क्षुद्र कह कर हसता है । पर जब उसे घरू काम करना पडता है तब यह हँसी बन्द हो जाती हैं। मैंने देखा है कि जब पुरुष को काफी समय तक नारियो के समान घरू काम करना पड़ते हैं। तब वह भी उन बातों में कलहकारी बन जाता है। कलह बुरी चीज है पर वह नर नारी दोनों में है । नारीनिन्दा से पुरूप निर्दोष नहीं हो सकता, दोनों को अपनी कलहकारिता घटाना चाहिये और छोटी छोटी बानों में कलह न हो इसके लिये यह जरूरी है कि नारीके हाथ में बड़ी बातें भी आयें जिसमे कलह-शक्ति का रूपान्तर किया जाय ! जैसे एक नारी व्याख्यान देना और लेम्ब लिखना जानती हो तो इसका स्वाभाविक परिग्राम होगा कि उसकी कलह शक्ति सैद्धान्तिक विवेचन और तार्किक खंडन मंडन में बदल जायगी और कलह के छोटे छोटे कारणों पर वह उपेक्षा करने लगेगी। मतलब यह है कि कलहकारिता नर श्रादि का है। उसे रूपान्तरित करने की जरूरत नारी में समान है। जो भेद है वह कार्यक्षेत्र है जिससे वह क्षुद्र और हानिकर न रह जाय । 1 ८ परापेक्षता ( चुमटिगो ) - प्राणीमात्र पग पेक्ष हैं, खास कर जहाँ समाज रचना है वहाँ परापेक्षता विशेष रूपये है। वह नर में भी हैं और नारी मे भी है । फिर भी अगर नारीमें पुरुष से कुछ अधिक परापेक्षता है तो उसका कारण वह भीरुता और प्रथोपार्जन को शक्ति है जो समाज ने व्यवस्था के लिये उसपर लाइ है यह स्वतंत्र टोप नहीं है। टी है। यह दो अन्य कृत्रिम दोषोंपर आश्रित ६. दीनता (नही) - इसका कारण भी समाज की वह आर्थिक व्यवस्था है जिसने नागरीको कंगाल बनाया है । 2 १० रूढिमोह ( रुलुट्टो मुही ) यह दोनों मे है, यह मनुष्यमात्र का दोप है। नारियों में अगर कुछ विशेष मात्रा में है तो इसका कारण शिक्षण तथा जगत के विशाल अनुभव का अभाव है F

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