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दैव की मान्यता यत्न के ऊपर आक्रमण करने लगती है तब उसे दैववाद कहते हैं। जैसे जो आदमी जन्म से कमजोर या गरीब है वह अगर कहे कि मेरी यह कमजोरी और गरीबी भाग्य से है तो इसमें कोई बुराई नही है यह देव का विवे चन-मात्र है । परन्तु जब वह यह सोचता है कि 'मैं गरीब बना दिया गया, कमजोर बना दिया गया अथ मैं क्या कर सकता हूँ', जो भाग्य मे था सो हो गया, क्या ? जो कुछ भाग्य में होगा सो होकर रहेगा अपने से क्या होता है' यह देववाद है, इससे मनुष्य कर्म में अनुत्साही, कायर और अकर्मण्य बनता है। पशुओ से यहीं बात पाई जाती है, वे दैव का विवेचन नहीं कर सकते हैं परन्तु दैवने उन्हे जैसा बना दिया है, उससे उंचे उठनेकी कोशिश नहीं कर सकते, उनका बिकास उनके प्रयत्न का फल नहीं किन्तु प्रकृति या दैव का फल होता है । कोई पशु बीमार हो जाय तो बाकी पशु उसका साथ छोड़ कर भाग जायेंगे और वह मरने की बाट देखता हुआ मर जायगा । कोई कोई पशु और पत्तियो मैं इससे कुछ ॐची अवस्था भी देखी जाती है पर वह बहुत कम होती है अथवा उतने शो में उन्हें दैव-“रधान या यत्न-रधान कहा जा सकता है ।
रन-बड़े बड़े महात्मा लोग भी देव के ऊपर भरोसा रख कर निश्चिन्त जीवन बिताते हैं arfare की चिन्ता नहीं करते यह भी दैववाद
अगर दैववाद से मनुष्य महात्मा बन सकता तव दैववाद सर्वथा निंदनीय कैसे कहा जा सकता है ?
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उत्तर - पशु की निश्चिन्तता मे और महात्मा की निश्चितता में अन्तर है। पशु की निश्चिन्नता अज्ञान का फल है और महात्मा की निश्चिन्तता ज्ञान का फल 2 दैववाद की निश्चिन्तता एक तरह की जड़ता या अज्ञानता का फल है। महात्मा लोग तो यत्न-प्रधान होते हैं इसीलिये वे महात्मा बन जाते हैं। देव के भरोसे मनुष्य महात्मा नहीं
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कता | दैववादी तो जैसा पशुतुल्य पैदा होना है वैसा ही बना रहता है उनका श्रात्मिक
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विकास नहीं होता । आत्मिक विकास के लिये भीतरी और बाहरी काफी प्रयत्न करना पड़ता है। एक बात यह भी है कि महात्माओ की निश्चि न्तता भी कर्मफल की निश्चिन्तता होती है, कर्म नहीं । अवस्था समभावी होने के कारण वे कर्मफल की पर्वाह नहीं करते, पर कर्म की पर्चाह तो करते हैं। कर्मफल की तरफ से जो लापर्वाही है वह दैववाद का फल नहीं श्रवस्था-समभाव का फल है।
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प्रश्न- देव और यत्न इनमें प्रधान कौन है और किसकी शक्ति अधिक है ? यत्न की शक्ति अगर अधिक हो तब तो यत्न-प्रधान होने से लाभ है, नहीं तो दैव-प्रधान ही मनुष्य को बनना चाहिये ।
उत्तर--- अगर दैव की शक्ति अधिक हो तो भी हमें दैव-प्रधान न बनना चाहिये । हमारे हाथ में स्न है इसलिये यत्न- प्रधान ही हमें बनना चाहिये। हम जानते हैं कि एक ही भूकम्प में हमारे गगनचुम्बी महल राख हो सकते हैं और हो जाते हैं फिर भी हम उन्हे बनाते हैं और भूकम्प के बाद भी बनाते हैं और उससे लाभ भी उठाते हैं। समुद्र के भयंकर तूफान मे बड़े बड़े जहाज उलट जाते हैं फिर भी हम समुद्र में जहाज चलाते हैं। प्रकृति की शक्ति के सामने मनुष्य की शक्ति ऐसी ही है जैसे पहाड़ के सामने एक करण, फिर भी मनुष्य परयत्न करता है और इसी से मनुष्य अपना विकास कर सका है। इसलिये दैव की शक्ति भले ही अधिक हो परन्तु बसे प्रधानता नही दी जा सकती। दैव की शक्ति कितनी भी रहे परन्तु देखना यह पड़ता है कि अमुक जगह और अमुक समय उसकी शक्ति कितनी है ? उस जगह हमारा यस्त काम कर सकता है या नहीं ? शीत ऋतु में जब चारों तरफ कड़ाके की ठंड पड़ती है तब हम उसको हटाने की ताकत नहीं रखते, परन्तु ठंड के उस विशाल समुद्र में से जितनी ठंढ हमारे कमरे में या शरीर के आसपास है उसे दूर करने का यत्न हम करते हैं, अग्नि या कपड़ों के द्वारा हम उस