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सत्यात
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जीवन व्यतीत करता है। यह जड़ता की सीमा से डरते हैं उनको अंकुश में रखने के लिये राष्ट्र पर है । और योगी विवेक की सीमापर है। जिस की बड़ी शक्ति खर्च होती है, फिर भी मौका प्रकार शराब आदि के नशे में चूर मनुष्यपर दण्ड मिलते ही वे कोई भी पाप करने को उतारू हो. आदि का भय असर नहीं करता पर इस निर्मः जाते है। उनमे मनुष्यता का अंश नहीं पाने यता में और सत्याग्रही की निर्भयता में अन्तर है पाया है। उसोरकार व्यारेरित मनुष्य की निर्भयता और कोई प्रादमी जानवर है या मनुष्य, इसका योगी की निर्भयता में अन्तर है। व्यर्थप्रेरित निर्णय करना हो तो यह देखना चाहिये कि वे मनुष्य ऐसा जड होता है कि, उसे मारपीटकर दंड से प्रेरित होकर उचित कार्य करते है या रास्तेपर बलाना चाहो तो भी नहीं चलता, उसके अपनी समझदारी से प्रेरित होकर । पहिली स्वार्थ के विचार से उसे समझाना चाहो वोभी अवस्था में वे मनुष्याकार जानवर है दूसरी नहीं समझता, उसको अच्छी संगति में रखकर अवस्था में मनुष्य । सुधारना चाहो तो भी नहीं सुधरता, उसे पढ़ा किसी किसी मनुष्य की यह प्रान्त रहती लिखाकर तथा उपदेश देकर मनुष्य बनाना चाहो कि जब उन्हें इस पाँच गालियाँ देकर रोको तोभी शैवान बनता है, यह व्यर्थरेरित मनुष्य है। तभी वे उस रोक को जल्प रोक समझते है नहीं इसकी पशुता परमसीमापर है।
तो उपेक्षा कर जाते हैं। जो सरल और नन सुच२ दंडप्रेरित (डेचो गेबार)को पाठमी नाओं पर ध्यान नहीं देता और वचन या तन से कानून के भय या दण्ड के भय से सीधे रास्ते पर ताडित होने पर ध्यान देता है वह जानवर है । । चलवा है वह दंडारित मनुष्य है इसमें पूर्णपूरी जिस समाल में देहरेरितों की संख्या
जितनी अधिक होगी वह समाज उतना ही हीन ___ जबतक मनुष्य में पशुता है तबतक दंड की और पतित है। इसी प्रकार जिस मनुष्य में दंड
आवश्यकता रहेगी ही। समाज से दंड या कानत परिवता जितने वश में है.वह उतने ही अंश में तभी हटाया जा सकता है जब मनुष्यसमाज पशु हे 1 । इतना सुसंस्कृत बन जाय कि अपराध करताना कभी कभी एक बलवान मनुष्य असम्भव माना जाने लगे। वह स्वर्णयुग अथ अत्याचार करने लगता है तत्र उसके अत्याचार आयगा तब श्रीयगा परन्तु जबतक वह युग नहीं के आगे एक सममवार को भी झुक जाना पड़ता पाया है तबतक इस बात की कोशिश अवश्य है अथवा कुन समय के लिये शान्त हो जाना होते रहना चाहिये कि समाज में दहरित पडता है. इसीपकार एक गट्र अव दूसरे राष्ट्र मनुष्य कम से कम हो।
पर पशुबल के आधार पर विजय पालेता है तब दंड या कानून के भय से लो काम होता है एक सज्जन को भी झुककर चलना पड़ता है क्या वह न तो स्थायी होता है न व्यापक। कानून तो पराधीन राष्ट्रों को और पीड़ित मनुष्यों को पशु - बड़े बड़े दिखावटी मामलों में ही हस्तक्षेप कर कोटि में रक्या जाय। सकता है और उसके लिये काफी प्रबल पमाण उत्तर-पशुवल से विवश होकर अगर उपस्थित करना पड़ते हैं। फीसदी अस्सी पाप तो कभी हमें अकर्तव्य करना पड़े तो इतने से ही कानून की पकड़ में ही नहीं पासकते और जो हम पशु न हो जायेंगे। पशु होने के लिये यह पकई में असकते हैं उनमें भी बहुत से पकड़ में आवश्यक है कि हम पशुवल से विवश होकर नहीं आत। कानून तो सिर्फ इसके लिये है कि अकर्तव्य को कोन्य समझने लगे। अगर हम निरंकुशता सीमातीत न हो जाय। जो सिर्फ व गुलामी को गौरव समझते है, अत्याचारियों की