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हैं। ये परार्थ को ही स्वार्था का असली साधन उत्तम स्वार्थ को परार्य शब्द से कहते हैं क्योंकि मानते हैं।
पग भी उस स्वार्थ की दूसरी बाजू है। और ६ विश्वहितार्थी (पुमभत्तर)-इनका ध्येय है- उसी ने इस स्वार्थ को उत्तम बनाया है इसलिये
जगहित में अपना कल्याण। उसे इसी नाम से अर्थात् पराई नाम से कहना यदि तू करता त्राण न जग का तेरा कैसा त्राण ।।।
उचित समझा जाता है । इसमें स्पष्टता अधिक है। ये विवेक और संयम की पूर्ण मात्रा, पाये
___ 'स्वार्थ के जो रूप एकपक्षी हैं या परार्थ के
विरोधी है उन में पराई का अंश न होने से हुए होते हैं । विश्व के साथ इनकी एक तरह से .
केवल स्वार्थरूप होने से उन्हें स्वार्थ शब्द से कहा प्रदतमावना होती है। स्वार्थ और ,पगर्थे,की जाता है। निस्वार्थ जीवन में ऐसे ही स्वार्थी सीमाएँ इनकी इस प्रकार मिली रहती है कि जीवन का निपेध किया जाना है। जिनने विश्वसुम्ब उन्हे अलग अलग करना कठिन होता है। ये को श्रात्मसुख्य रूप समझ लिया है वे वास्तव में श्रादर्श मनुष्य हैं।
श्रेष्तस्वार्थी या परार्थी है । स्वार्थ और परार्थ एक प्रश्नकोई भी मनुष्य हो उसकी प्रवृत्ति ही सिक्के के दो बाजू हैं । इस अद्वत को जिसने अपने सख के लिये होती है। जब हमें किसी जीवन में उतार लिया उसका जीवन ही थादर्श दुःखी पर दया आती है और उसके दुश्य दूर भावन। करने के लिये जब हम प्रयत्न करते हैं जब यह ६-प्रेरणा जीवन (आरो जिवो) प्रयत्न परोपकार की दृष्टि से नहीं होता किन्तु
(पाच भेद) दुःखी को देखकर जो अपने दिल में दुःख हो
मनुष्य मनुष्यता के मार्ग में कितना आगे जाता है उस दुख को दूर करने के लिये हमारा
बढ़ा हुआ है इसका पता इस बात से भी लगता
वा रयत्न होता है, इस पकार अपने दिल के दुग्य है कि उसे कर्तव्य करने की प्रेरणा कहाँ कहाँ से को दूर करने का प्रयत्न स्वार्थ ही है, तब स्वार्थ मिलती है । इस दृष्टि से जीवन की पाच श्रेणियाँ को निन्दनीय क्यों समझना चाहिये और परोप (थुजीपो ) वनती हैं। कार जीवन का ध्येय क्यों होना चाहिये ?
१ व्यर्थप्रेरित, २ दंडप्रेरित, ३ स्वार्थ___ उत्तर- परोपकार जीवनका ध्येय भले ही न रेरित, ४ संस्कारग्रेरित, ५ विवेकप्रेरित । कहा जाय किन्तु परोपकार अगर स्वार्थ का अंग . १ व्यर्थ रेरित ( नको गे पार )-जो प्राणी बन जाय और ऐसा स्वार्थ जीवन का ध्येय हो बिलकुल मूढ़ हैं जिनका पालन पोपए अच्छे तो परोपकार जीवन का ध्येय हो ही गया। असल संस्कारों में नहीं हुआ, जिन्हें न दंह का भय है वात यह है कि यहा जो अध/जीवन के छ: भेद न स्वार्थ की समझ, न कर्तव्य का विवेक, इस किये गये हैं वे असल में स्वार्थ के छः रूप है। एकार जिनको दृढ़ता असंह है वे व्यर्थरेरित है। कोई न्यीस्वार्थीपन या स्वार्थीपन को स्वार्थ सम- यह एक विचित्र यात है कि विकास और अविझते हैं कोई विश्वहितार्थिता को स्वार्थ समझते हैं। कासको चरमसीमा प्रायः शन्दों में एकमी होजाती स्वार्थ के छः भेदों का क्रम उत्तरोत्तर उत्तमता की है। जिस प्रकार कोइ योगी चरम विवेकी ज्ञानी दृष्टि से यहा किया गया है। जहा पर का दुख संयमी मनुष्य दंड मे भीत नहीं होता, स्वार्थ के अपना दुख बनता है अपना दुःख दूर करना चघर में नहीं पड़ता, कोई रूढ़ि उसे नहीं बाँधपाती परदुख का दूर करना हो जाता है ऐसा स्वार्थ उसी प्रकार इस व्यारेग्ति मनुष्य को न नोदंद परम स्वार्थ भी है और परम पराध भी। परन्तु का भय है, न स्वार्थ का विचार, न संभाग की स्वार्थ के अन्य खराब रूप भी हैं इसलिये इस छाप, विलकुल निर्भय निर्द्वन्द होकर वह अपना