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पर मनुष्य को इसके लिये उत्तजित किया जा विशेषता समझेंगे-घृणा न करेंगे। सकता है पर उत्तेजना अपने स्वभाव के अनुसार दंड भी काम करे, लोगों के सामने सभ. मणिक ही होगी।
स्वार्थता के नाम पर भी मिलने की अपील की जब लोगों के हृदय पर यह वात अकित जाय, परन्तु हम भूल न जॉय कि हमें मनध्य हो जायगी कि पूजा नमाज का एक ही उद्देश है मात्र में सास्कृतिक एकता पैदा करना है। सब एक ही ईश्वर के पास भक्ति पहुँचती है, सत्य की एक जाति और एक धर्म बनाना है। वह और अहिंसा की सभी जगह प्रतिष्ठा है, प्रेम नतिक धर्म होगा, प्रेम-धर्म होगा। वह मनाय और सेवा को सबने अच्छी और आवश्यक
जाति होगी सभ्य जाति होगी। हम दंड के भय कहा है, राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुह
से नहीं, भौतिक स्वार्थ के पलोमन से नहीं, म्मद आदि सभी महापुरुप समाज के सेवक थे, लेकिन एक सुसंस्कृत मनुष्य होने के नात प्रेम के इन सभी का आदर करना चाहिये, सभी से हम पुजारी बन, विश्ववन्धुत्व की मूर्ति बनें, जिससे
हमारा संयम प्रेम और वन्धुत्व चतुराई या चाल कुछ न कुछ अच्छी बातें सीख सकते हैं, समय समय पर सभा के खास गुणों की आवश्यकता न हो किन्तु स्वभाव हो और इसी कारण सं होती है, तब ६ का जोर बताये बिना, राज- उसमें अमरता हो। नैतिक स्वार्थ था प्रलोभन बताये , बिना स्थायी इस प्रकार समाजमें संस्कार-प्रेरितोंका बहुएकता हो जायगी। नाम से सम्प्रदाय भेद रहेगा भाग हो जाने से मानव समाज में स्थायी शान्ति पर इन सब के भीतर एक व्यापक धर्म होगा हो जाती है और मनुष्य सभ्य तथा सुखी हो जो सब को एक बनायेगा। और यह भी सम्भव जाता है।' है कि सभी सम्प्रदाय किसी एक नये नाम के विवेक-प्रेरित- को गेआर) विवेकअन्तर्गत होकर अपनी विशेषता और विशेष प्रेरित वह मनुष्य है जो अपने स्वार्थ की पर्वाह नामों के साथ भी एक बन जायें। जैसे वैदिक न करके, नये और पुरान की पर्याह न करके, . धर्म और शैव वैष्णव आदि सम्प्रदायो ने तथा ,
अभ्यास हो या न हो पर जो जनकल्याणकारी आर्य और द्राविड़ी सभ्यताओं ने हिन्दू धर्म का काम करता है । यद्यपि संस्कारास मनुष्य श्रेष्ठ नाम धारण कर लिया और इस बात की पति बन जाता है पर सरकार के नाम पर ऐसे कार्य नहीं की कि हिन्द नाम अवैदिक, अर्वाचीन और भी मनुष्य करता रहता है जो किसी जमाने में यवनों के द्वारा दिया गया है, इस प्रकार एक अच्छे थे पर आज उनसे हानि है। संस्कार धर्म की सृष्टि होगई । उसी प्रकार हिन्दू, मुसल. प्रेरित मनुष्य उनको हटाने में असमर्थ है। पर मान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख आदि जो विवेक-प्रेरित है वह उचित सुधार या उचित
सभी सम्प्रदायों की और पर्थों की एक संस्कृति कति के लिये सदा तयार रहता है। इस प्रकार , डलना चाहिये । इस प्रकार सास्कृतिक एकत्ता हो संस्कारों के द्वारा आई हुई सब अच्छी बातों को
आने पर समरदाय के नाम पर चलने वाला हो तो यह अपनाये रहता है और बुरी बातों को सामहिक असंयम है वह नामशेष हो जायगा। छोड़ने में उसे देर नहीं लगती है।
कुसंस्कारों ने हमें नाममोही बना दिया है विवेक प्रेरित मनुष्य विद्वान हो या न हो ससंस्कारों के द्वारा हमारा नाममोह मर सकता पर बुद्धिमान, अनुभवी मनोवैज्ञानिक और नि:पक्ष फिर तो हम विना किसी पक्षपात के परस्पर विचारक अवश्य होता है । इन्हीं विवेक प्रेरितों
आदान प्रदान कर लेंगे और जिनके आदान में से जो उच्च श्रेणी के विवेक प्रेरित होते है रदान की आवश्यकता न होगी उनको दूसरों की जिनकी नि:स्वार्थता साहस और जनसेवकता