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जनता की भक्ति पूजा लूट लेना चाहता है। इसमे तो यम है ही, साथ ही जनता का भी दोष है। जनता जब अपने सेवक की अपेक्षा अधिकारी की अधिक भक्ति करेगी तब लोग सेवक बनने की अपेक्षा अधिकारी बनने की अधिक कोशिश करेंगे। इससे सेवक घटेंगे अधिकारों के लुटारू बढ़ेंगे इसलिये अधि कारभक्ति भी एक तरह की बुराई है। अधिकारी को भक्ति उतनी ही करना चाहिये जितनी कि अधिकारी होने के पहिले उसके गुणों और सेवाश्री के कारण करते थे।
प्रश्न-व्यवस्था की रक्षा करने के लिये अधिकाभक्ति करना ही पड़ती है और करना भी चाहिये। न्यायालय में जानेवाले अगर न्याया. धीश के fer का ही खयाल करें और उसके अधिकार की तरफ ध्यान न दें तो न्यायालय की इज्जत भी कायम न रहे, न्यायाधीश को न्याय करना भी कठिन हो जाय।
उत्तर - न्यायालय में न्यायाधीशका सन्मान न्यायाधीश की भक्ति नहीं है यह तो उचित मर्यादा का पालन है ।" न्यायासन पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विचार नहीं किया जाता उस पद का विचार किया जाता है। न्यायालय के आदर में व्यक्ति को बिलकुल गौण कर देना चाहिये । न्यायालय के बाहर उस व्यक्ति का आदर उसके गुण अनुसार करना चाहिये वहा उसके पद या अधिकार को गौण कर देना चाहिये ।
प्रश्न- ऐसे भी अधिकारी हैं जो चौबीसों घंटे अपनी ड्यूटीपर माने जाते हैं उसके लिये न्यायालय के भीतर या बाहर का भेद नहीं होता।
उत्तर- ऐसे लोग जब ड्यूटी के काम के लियं यावें तब उनका वैसा आदर करना चाहिये, परन्तु जब वे किसी धार्मिक सामाजिक या वैय फ़िक कार्य से आवें तब उनका अधिकारीपन गौण समझना चाहिये ।
HOME यह है कि अधिकार और महत्ता का पूज्यता से मेल नहीं बैठता। अच्छे से अच्छे जनसेवक त्यागी व्यक्ति अधिकारहीन होते हैं
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और साधारण से साधारण क्षुद्र व्यक्ति अधिकार पा जाते हैं। अधिकार के आसन पर बैठकर वे श्रादर सन्मान तो लूट ही लेते हैं, अब अगर अन्यन्त्र भी वे आदर सम्मान लूटें और सच्चे सेवक और त्यागी भी उनके आगे गौण कर दिये जाँय तो समाज के लिये इससे बढ़कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है। और इसी कृतघ्नता का यह परिणाम है कि समाजसेवा की अपेक्षा पढ़ाधिकारी बनने की तरफ मनुष्य की रुचि अधिक होती है। प्रजातन्त्र शासन की अमछाई भी इसी कारण धीरे धीरे नष्ट हो जाती है।
हा, यह ठीक है कि कोई पदाधिकारी योग्य भी हो और उसने अपनी योग्यता का धन का जन का समाज सेवा के कार्य मे उपयोग किया हो तो इस दृष्टि से उसको भक्ति की जा सकेगी। पर जब दूसरे समाजसेवी से उसकी तुलना होगी तो समाज सेवा ही की दृष्टि से तुलना होगी, अधिकार की दृष्टि से नहीं।
कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई धनी या अधिकारी आर्थिक आदि कारणो से सम्पर्क में आता है, उससे परिचय हो जाता है, और पत्ता लगता है कि वह सिर्फ धनी या अधिकारी ही नहीं है किन्तु गुरणों में भी श्रेष्ठ है परोपकारी भी है, इस प्रकार उसकी भक्ति पैदा हो जाती है तो यह धनमक्ति या अधिकारमति नहीं है किंतु
भक्ति या उपकार भक्ति है ।
६ वेषभक्त (रु जो भक्त ) - गुण हो या न हो किन्तु वेप देखकर किसी की भक्ति करना वेपभक्ति है । वेषभक्त भी जघन्य श्रेणी का भक्त है । जब हम विद्वत्ता त्याग समाजसेवा आदि का अपमान करके किसी वेप का सन्मान करते हैं तब यह अधम भक्ति समाज में इन गुणों की कमी कराने लगती है और वेप लेकर पुजने के लिये धूर्तों मूढ़ों गुणहीनों को उत्तेजित करती है, वेप तो किसी संस्था के सदस्य होने की निशानी है महत्ता या गुण के साथ उसका नियत सम्बन्ध नहीं है। वेप लेकर भी मनुष्य हीन हो