Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 209
________________ ergकाड था किन्तु इससे यह साफ मालूम होता है कि उनका जीवन आनन्दी - कर्मठ विचारक था । कुछ म महावीर के विषय में यह सन्देह बढ़ जाता है। इसका एक कारण तो यह है कि उनका इतिहास बहुत अधूरा मिलता है। उनकी चर्या, मिलने-जुलने तथा वार्तालाप आदि के प्रसंग इतने कम उपलब्ध हैं कि किसी भी पाठक को जैनियो के इस प्रमाद पर रोप आयगा | जैन लोग म. महाबीर को पूजने में जितने आगे रहे उतने आगे उन्हे न समझने में भी रहे। फिर भी जो कुछ टूटी फूटी सामग्री उपलब्ध है उससे कहा जा सकता है कि उनका जीवन श्रानन्दी - कर्मठ - विचारक या । कूर्मापुत्र सरीखे गृहस्थ अहंतों की कथा का निर्माण करके उनने इस नीति का काफी परिचय दिया है। साधना के समय में हम उनके जीवन में कठोर तपस्याए' देखते हैं परन्तु अर्हन्त हो जाने के बाद उनके जीवन मे अनावश्यक कष्टों को निमन्त्रण नहीं दिया गया । म. महावीर लोगों के घर जाते थे, स्त्रीपुरूषों से मिलते थे, वार्तालाप आदि में उनकी भाषा में कहीं कहीं उनके मुहसे ऐसी बातें निकलती है जो अगर विनोद मे न कहीं जाँगें तो उससे सुननेवालों को भक्ति के स्थान में क्षोभ पैदा हो सकता है, जैसा कि लपुत्र के वार्तालाप के प्रसंग में है । परन्तु वहां उसे भक्ति ही पैदा हुई है इससे यह साफ मालूम होता है कि उनके जीवन में काफी विनोद भी होना चाहिये । श्रोणिक और चेलना में अगर झगड़ा होता है तो म. महावीर उसके बीच में पड़कर झगड़ा शान्त करा देते हैं। दाम्पत्य के बीच में खड़ा हो सकनेवाला व्यक्ति निर्दोष-रसिक अवश्य होना चाहिये। इसलिये म. महावीर का जीवन भी आनन्दी - कर्मठ-विचारक जीवन था । सद्दा म ईसा जो अविवाहित रहे और म बुद्ध और म. महावीर ने जो दाम्पत्य का त्याग किया और अन्ततक चालू रक्खा इसका कारण यह नहीं था कि वे इस प्रकार के जीवन को नापसन्द करते थे, किन्तु यह था कि उस युग में परिब्राजक [ २११ ] जीवन बिताने के सावन अत्यन्य अल्प और संकीर्ण थे इसलिये तथा वातावरण बहुत विपरीत होने के कारण वे दाम्पत्य के साथ धर्मसंस्थापन का कार्य नहीं कर सकते थे 1 इस श्रेणी में रहनेवाले मनुष्योंका व्यक्तित्व छोटा हो या बड़ा, शक्ति कम हो या अधिक, परन्तु वह जगत के लिये उपादेय है। ४ कर्तव्यजीवन ( लंभत्तोजिवो ) छः भेद t न्याय शास्त्रियों ने वस्तु की एक बड़ी अच्छी परिभाषा की है कि जो कर्म करे वह वस्तु ' ( श्रर्थक्रियाकारित्वं वस्तुनो लत्तणम् ) इस प्रकार मनुष्य ही नहीं प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है कि उसमें कुछ क्रिया हो। अगर वस्तु में कोई विशेपता है तो उसकी क्रिया में भी कुछ विशेषता होना चाहिये। जड़ जगत के क्रियाकारित्व की अपेक्षा चेतन जगत का क्रियाकारित्व कुछ विशेष मात्रा में होगा । चेतन जगत में भी जिस प्रणी का जितना अधिक विकास हुआ होगा उसका क्रियाकारित्व भी उतना ही उच्च श्रेणी का होगा । वस्तु का लघुत्व और महत्व उसकी क्रियाः कारित्वशीलता पर निर्भर है। मनुष्य प्राणी सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। प्राणियों का लक्ष्य सुख है। अन्य प्राणी आत्मसुख और पर-सुख के लिये सच्चा प्रयत्न नहीं के बराबर कर पाते हैं। सुख का ओत कितनी दूर से किस प्रकार आता है इसका उन्हें पता नहीं होता जब कि मनुष्य इस विषय में काफी बढ़ा चढ़ा है। वह समझता है कि सारा संसार अगर नरकरूप हो जाय तो मैं अकेला स्वर्ग बनाकर नहीं रह सकता, इसलिये आत्म-सुख के साथ वह परसुख के लिये भी पूरा प्रयत्न करता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि सुख के सूक्ष्म और विस्तीर्ण स्रोतों तक पहुँचती है। जो मनुष्य श्रात्म सुख और परसुख के लिये जितना अधिक सम्मिलित प्रयत्न करता है वह उतना ही अधिक महान है। जो

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