Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ । २१२ ] सत्यामृत कर्म है चा कुकive है उस में प्रभाव से ही कुछ न कुछ क्रिया होने से वस्तुत्व तो है परन्तु मनुष्योचित कर्तव्य न करने से मनुष्यत्व नहीं है। वह मनुष्याकार प्राणी है परन्तु मनुष्यवान् मनुष्य नहीं है । इस वास्तविक कर्मठता की दृष्टि से मनुष्यजीवन छः भागों में विभक्त किया जा सकता हैइन भागों को कर्तव्यपः कहना चाहिये । २ प्रसुप्त, २ सुप्त, ३ जामत, ४ बस्थिन, ५ संलग्न, ६ योगी १ प्रसुम (शेन ) - प्राणिवा का बहुभाग इसी श्रेणी में है। इस श्रेणी के लोग विचार शून्य होते हैं। पशुपक्षियों से लेकर श्राजके अधिकांश मनुष्य तक इसी श्रेणी में हैं। इस श्रेणी के प्राणी नहीं समझते कि जीवन का ध्येय क्या सुख की लालसा तो रहती है किन्तु उसे प्राप्त करने की, उद्योग करने की, इच्छा या शक्ति नहीं रहती । दुख आपढ़े तो रोरोकर भोग लेंगे, सुम्ब श्राया तो उसमें फूल जायेंगे, भविष्य की चिन्ता न रहेगी, परोपकार का ध्यान न श्रयगा उनके सारे कार्य स्वार्थ-मूलक होंगे। अनेक तरह की निद्राओ में एक ऐसी निद्रा भी होती है जिसमें मनुष्य सोते सोते अनेक काम कर जाता है। दौड़ जाता है, तैर जाता है और शक्ति के बाहर मी काम कर जाता है। इसे स्थानगृद्धि ( शंसुपो ) कहते हैं। इस प्रकार की निद्रावाले मनुष्य की तरह सुप्त श्रेणी का मनुष्य भी कभी कभी कर्मठता दिखलाता है परन्तु उसमें विवेक तो होता ही नहीं है साथ ही साधा रण विद्या बुद्धि भी नहीं होती। जुवारी के दाव की तरह उसका पाँसा कभी पौधा तो कभी सीधा पड़ जाता है। ऐसे मनुष्य लाखों कमायेंगे, लाखों गमायेंगे पर यह सब क्यों करते हैं इसका उत्तर नपा सकेंगे ! ना भी करेंगे तो बिलकुल विवेकशून्य set for बिचारे रूढ़ियों की पूजा करेंगे उनका अनुसरण करेंगे । ये लोग इसी लिये जिन्दे रहते हैं कि मौत नहीं आती। बाकी जीवन का कुछ ध्येय इनके सामने नहीं होता। जिस प्रकार प्राकृतिक जड़ शक्तियाँ कभी कभी प्राय मचा देती है और कभी कभी सुभिक्ष कर देती हैं परन्तु इसमें उनको विवेक नहीं होता उसी तरह प्रसुप्त श्रेणी के लोग भी अच्छी या बुरी दिशा में विशाल कार्य कर जाते हैं । परन्तु यह स्त्यानगृद्धि सरीखे आवेग में कर जाते हैं। उसमें विवेक नहीं होता । इस श्रेणी के लोग संगमी का वेष ही क्यों न लेलें पर महान असं यमी होते हैं। उत्तरदायित्व का मन भी नहीं होता । विश्वासघात इनके हृदय को खटकता भी नहीं है। विश्वासवात वता इनकी दृष्टि में होशियारी है। सन्ध्या, नमाज, पूजा, प्रार्थना करने मैं नहीं, उसका ढोंग करने में इनके धर्म की इति होजाती है। धर्म का सम्बन्ध नैतिकता से यह बात इनकी समझ के परे है। बड़े बड़े पापों की भी पापता इनकी समझ में स्वयं नहीं कहकर उपेक्षा कर जाते हैं। यह इनकी प्रति आती अगर कोई समाये तो 'ॐ ह्चतता ही है निद्रितता का परिणाम है। २ सुम ( सुप ) - प्रसुप्त श्रेणी के मनुष्यों की अपेक्षा इसat far कुछ हलकी होती है। इसका चैतन्य भीतर भीतर निरर्गल रूप में नृत्य करता रहता है किन्तु स्वप्न की तरह निष्फल होता है। इस श्रेणी के मनुष्य विद्वान और बुद्धिमान भी हो सकते हैं। बड़े भारी पंडित, शास्त्री, वकील, प्रोफेसर, जल, धर्म समाज और राष्ट्र के नेता तक हो सकते हैं फिर भी कर्तव्य मार्ग में सोते ही रहते हैं। दुनिया की नजरों में ये समझदार तो कहलाते हैं, प्रतिष्ठा भी पा जाते हैं परन्तु नतो इनमें विवेक होता है न सात्विक आत्मसन्तोष। ये जो बहुत, परन्तु इनके विचार व्यापक न होंगे, दृष्टि संकुचित रहेगी। काम भी करेंगे परन्तु स्वार्थ की उस व्यापक व्याख्या को न समझ सकेंगे, जिसके भीतर विश्वहित समा जाता है। घोड़ासो का लगते ही इनका कार्य स्वप्न की तरह टूट जायगा और ये चौंक पड़ेंगे और कोई दूसरा स्वप्न लेने लगेंगे। स्वप्न की तरह

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259