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५- अर्थजीवन (टेयो जिवो) किया जाता है, जिसमें द्वे प अभिमान आदि प्रगट
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। जिस में सिर्फ प्रेम का प्रदर्शन
छः भेद
पि समस्त प्राणी सुखार्थी हैं परन्तु दुसरो को पर्वाह न करके वेवल अपने सुख के लिये हाथ हाथ करने से कोई सुग्बी नहीं हो पाता
नहीं होते वह सुप्रीति ( सुलव ) है । इसका ये नहलान और प्रेमप्रदर्शन है। इसमें जिसकी हँसी की जाती हैं वह मी खुश होता है। और जो हँसी करता है वह भी खुश होता है।
ये अधिक से अधिक स्वपर कल्याण ही जीवन का ध्येय है । यह यात ध्येयदृष्टि अध्याय में विस्तार से बताई जा चुकी है। इस स्वार्थ परार्थ की दृष्टि से जो जीवन अधिक से अधिक स्वपरवल्याणकारी होगा वह जीवन उतना ही महान है । इस अपेक्षा से जीवन की छह श्रेणियों (थुजी पो) बनती है - १ -पर्धस्वार्थी र स्वार्थी ३ - स्वार्थ प्रचान ४- समस्वार्थी ५- परार्धप्रधान ६ - विश्वहितार्थी ।
इनमें पहले दो जघन्य (क्त ) धीच के मध्यम ( कूक) और अन्त के दो उत्तम 1) श्रेणी के हैं 1
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१- व्यर्थस्वार्थी (मुझे लुग्भ ) जिस स्वार्थ का वास्तव मे कोई अर्थ नहीं है ऐसे स्वार्थ के लिये जो अन्धे होकर पाप करने को उतारू हो जाते हैं वे स्वार्थी है। शेर के आगे मनुष्य को छोडकर उस मनुष्य की मौत देखकर पर होना व्यस्थापन है । पहिले कुछ यूँ खल राजा लोग ऐसे व्यर्णस्वार्थी हुआ करते थे । आज भी नाना रूप में यह व्यस्वार्थीपन पाया - आता है । जिसमें किसी इन्द्रियों को कृष्टि नहीं मिलती सिर्फ मन को Farar ही तुम होती है वह स्वार्थीपन है
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जब लोग दूसरों का मजाक उड़ाते tar इससे उनका कोई लाभ तो होता ही नहीं इसलिये यह स्वार्थीपन कहलाया और माफ करनेवाले व्यर्भग्यार्थी कहलाये | इसलिये जीवन में हास्य विनोद को कोई स्थान ही न
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(e) चार तरह का १२ शैशिक ३ विक,
उत्तर
जो विनोद किसी की भूल बताकर उसका सुशार करने की नियत से किया जाता है वह शैक्षणिक (बोजज ) है । जैसे किसी शिकारी से कहा जाय कि भाई तुम तो जानवरी के महाराजा हो, शेर से सत्र जानवर डरते हैं, इसलिये वह जानवरों का राजा है तुम से शेर भी डरता है इसलिये तुम जानवरों के महाराजा हो क्यों जी, तुम्हें अब पशुपति कहाजाय ! इस विनोद मे द्वेष नहीं है किन्तु शिकारी को शिकार से छुड़ाने की भावना है। यह शैक्षणिक है।
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जिस विनोद में विशेष प्रगट किया जाता है वह विरोधक (फूल्लुर ) है। शैक्षणिक में सुधीतिफ बराबर तो नहीं, फिर भी कुछ प्रेम का श रहता है, परन्तु विरोधक में उतना अंश नहीं रहता उसमें सिर्फ विरोध प्रगट करने, या उसकी गलती के लिये शाब्दिक दंड देने की भावना रहती है। शैक्षणिक की अपेक्षा विरोधक में कुछ कठोरता अधिक है । जैसे म ईसा को कास पर लटकाते समय काँटों का मुकुट पहनाकर हैंसी की गई कि श्राप तो शाहंशाह हैं। किसी शत्रु को तोप से उड़ाते समय कहना -- चलो, तुम्हें श्राकाश की सैर करा दें । ये विरोधक विनोद के उम्र दृष्टान्त हैं। पर साधारण जीवन मे भी विरोधक विनोद के साधारण दृष्टान्त मिलते हैं ।
रौद्र विनोद (कून शो ) वहीं है जहां अपना कोई स्वार्थ नहीं है, उससे विरोध भी नही है, उसका लाभ भी नहीं है, सिर्फ मनोविनोट के नामपर दूसरे के मर्मस्थल को चोट पहुँचाई जाती है, उसका दिल दुमाया जाता है। इसका एक जिस समय के पंक्तियों मिगी जा रही