Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 202
________________ - - - - - - -- - -- सकता है। वेष के आगे वास्तविक महत्ता का चार रेखाएँ खीचकर सुन्दर चित्र बना लेता है अपमान न होना चाहिये। और अनाडी चित्रकार स्याही से कागज भर कर प्रश्न-वेप किसी संस्था के सदस्य होने की भी कुछ नहीं कर पाता। यह कला की विशे. निशानी है, तब यदि उस संस्था का सन्मान पता है। करना हो तो वेप का सन्मान क्यो न किया जाय? कला की भक्ति मध्यम श्रेणी की भक्ति है। उत्तर-वेप का सन्मान एक बात है, वेप अधिकारमति धनमक्ति प्रादि से जो दूसरों पर होने से किसी व्यक्ति का सन्मान करना दूसरी बोझ पड़ता है वह कलामति से नहीं पड़ता। बात है, वेप के द्वारा किसी संस्था का सन्मान कला जगत को कुछ देती ही है जब कि धन करना तीसरी बात है, और वेप के द्वारा श्राम- अधिकार आदि दूसमें से खींचते हैं। मुझे धनी शद्धि और जनसेवा का सन्मान करना चौथी बनने के लिये दसरा से छीनना पड़ेगा या लेना बात है। इनमें से पहिली दो बातें उचित नहीं पड़ेगा पर कलावान होने के लिये दूसरों से है। तीसरी बात ठीक है परन्तु उसमें मादा छीनना जरूरी नहीं है थोड़ा बहुत दूंगा ही। होना चाहिये। संस्था का सन्मान उतना ही जगत में बहुत से धनी अधिकारी श्राद ही इस उचित है जितनी उससे लोकसेवा होती है। कोई की अपेक्षा यह अच्छा है कि बहुत से कलावान संस्था यह नियम बनाले कि हमारे सदस्यों से हो। इसलिये कलाभक्ति धना श्रादि से अच्छी जो मिलने पावे उसे अमीन पर बैठना पड़ेगा है मध्यम श्रेणी की है। भले ही मिलानेवाला कितना ही बड़ा लोकसेवी उत्तम श्रेणी की यह इसलिये नहीं है कि विद्वान हो और हमारा सदस्य सिंहासन था कलाकान होने से ही जगत को लाभ नहीं होता। ॐचे तख्त पर बैठेगा भले ही उसकी योग्यता उसका दुरुपयोग भी काफी हो सकता है। इस कितनी ही कम हो, तो उस संस्था की यह लिय सिर्फ कलाभक्ति से कुछ लाभ नहीं उसके स्वादती है। संस्था का सन्मान उसके रीतिरिवाज सदपयोग की भक्ति ही उत्तम श्रेणी में जा सकता के आधार पर नहीं किन्तु उसकी लोकसेवा आदि है। पर उस समय कला गौर हो जायगी और के आधार पर किया जाना चाहिये। उससे होनेवाला उपकार ही मुख्य हो जायगा चौथी बात सोचम है। इसमें संस्था को इसलिये वहा कलाभक्ति न रह कर उपकारभक्ति प्रश्न नहीं रहता इसमें वेप वो सिर्फ एक विज्ञापन रहेगा। है जिससे आकृष्ट होकर लोग व्यक्ति की आत्म- गुणभक्त (रमो भक्त)- दूसरे की मलाई शुद्धि और जनसेवा की परीक्षा के लिये उत्सुक कर सकनेवाली शक्ति विशेष का नाम गुण है। हो। इसके बाद जैसा उसे पायें उसके साथ वैसा जैसे विद्वचा, धुद्धिमत्ता, पहिलवानी, सुन्दरता ही व्यवहार करें। आदि । कुछ गुण स्वाभाविक होते हैं और कुछ . ७ कलाभक्त (चन्नोभत)-मन और इन्द्रियों उपार्जिन । बुद्धिमत्ता आदि स्वाभाविक हैं विद्वत्ता को प्रसन्न करनेवाली साकार या निराकार रचना आदि उपाजित । गुणी होने से किसी की भक्ति विशेष का नाम कला है। जैसे वक्तृत्व कवित्ल करना गुणक्ति है यह भी मध्यम श्रेणी की संगीत आदि निराकार कला, मूर्ति चित्र नृत्य भक्ति है। इसकी मध्यमता का कारण वही है आदि साकार कला । जहा कता है वहां कम खर्च मा कला में भी अधिक आनन्द मिल सकता है, जहां कला प्रम-सौन्दर्य भी एक गुण है उसकी भक्ति नहीं है वहां अधिक खर्च में भी उतना आनन्द मध्यम श्रेणी की भक्ति है और धनी अधिकारी नहीं मिल पाना । चतुर चित्रकार पेन्सिल से दो आदि की भक्ति जघन्य श्रेणी की, तब सुन्दरियों

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