Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 190
________________ wink - - - - - - - - - नहीं है। अच्छा कार्य करने पर उसके हृदय से हो गया तो, चैसा हो गया तो, इस प्रकार बेबुही यशरूपी असत करता है जिससे वह अमर लियाद न जाने कितने भय वे अपने मनपर लान्द हो जाता है इसलिये बाहर लोग उसकी निन्दा रहते हैं। उपयुक्त कार्य कारण का विचार करना करें तो इस बात की उसे चिन्ता नहीं होती, वह एक बात है किन्तु जीवन का अतिमोह होने के ऐसे अपयश से नहीं डरता । वह डरता है अपने कारण कर्नव्यशून्य आलसी जीवन विताना भीतर के अपयश से। बाहर के अपयश की पर्वाह दूसरी। योगी ऐस अज्ञात भयों से मुक्त रहता है। न होना ही उसकी निर्भयत्ता है। इसीलिये कहा भय के भेद और भी किये जा सकते हैं गया कि उसे अयशोमत्र नहीं होता। यहाँ जो भयो का विवेचन किया गया है वा असाधनभय ( नेरचो डिडो)-साधना के सिर्फ इसलिये कि योगी की निर्भयता की रूपरेख अभाव से योग्यता रहने पर भी मनुष्य उसका दिखाई दे। यह निर्भयता योगी की दूसरे फल नहीं पाता। हमारे साथी बिछुड़ जायगे लब्धि है। साधन नष्ट हो जॉयो इस प्रकार दर से वह ३ अकपायता ( नेरुटो) असत्य का पोपय नही करता। इसका यह मतलब नहीं है कि वह देश काल का विचार नहीं योगी की तीसरी लब्धि है अपायत करता या क्रम विकास पर ध्यान नहीं देता। वह इससे वह भगवती अहिंसा का परम पुजारी और अवसर की ताक में रहता है, R परम सयमी होता है। उसकी परा मनोवृत्ति तक धीरे धीरे बढता है, पर सारा लक्ष्य सत्य पर रहता किसी कपाय का प्रभाव नहीं पहुंचता । क्रोध है पहिक साधनों पर नहीं । एक तरह की प्रास. मान माया लोम के कारण उपस्थित होने पर निर्भरता उसमें पाई जाती है। असहायता या उसमें क्षोभ नहीं होता। हाँ, कभी को इन मावों असाधनता के डर से वह घबराता नहीं है, पथ- का वह प्रदर्शन करता है पर वह भीतर से नहीं भ्रष्ट मो नहीं होता है। वह यही सोचता है कि भगवा 1 इसप्रकार अकपाय रहकर वह स्वयं जो कुछ बन सकता है बह करता हूँ अधिक करने सुखी रहता है और जगत को दु:खी नहीं होने के लिये उसमें असत्य का विष क्यों घोलू। वह देता। आत्मनिर्भर तथा फलाफल निरपेक्ष रहता है इस- आन्तरिक दुखों की जड़ यह कपाय ही है। लिये उसे असाधनमय नहीं होता। अकषायता का कारण पहिले प्रतलाया हुआ चार __ परिनसमय (शिहोडिडो)-जगत मालस्य प्रकार का समभाव है। विवेक और चार प्रकार का पुजारी है वह परिश्रम को दुःख समझता है, का समभाव योगी जीवन के चिन्ह है । संसार में इसलिये श्रालस्य की आशा में वह असत्य और योगियों की संख्या जितनी अधिक होगी संसार असदाचार का पोपण करता है। योगी तो परि- उतना ही सुखी होगा। बाहरी वैभधी की वृद्धि श्रम को विनोद समझता है शरीरस्वास्थ्य के लिये कितनी भी की जाय, उससे कुछ शारीरिक सुख आवश्यक समझना है उससे उसको अपमान भी भले ही पढ़े पर उससे कई गुणें मानसिक कष्ट नहीं मालूम होता, आलस्य या अकर्मण्यता को बढ़ेगे। अगर ससार का प्रत्येक व्यक्ति योगों वह गौरव का चिन्ह नहीं समझता इसलिये वह हो जाय तो अल्प वैभव में भी संसार शान्तिमय, परिश्रम से नहीं डरता। आनन्दमय बन सकता है। प्रत्येक धर्म का प्रत्येक १० अज्ञातभय (नोजानं डिडो)- जिनका शास्त्र का, प्रत्येक महात्मा का यही ध्येय है। इस स्वभाव ही कायरतामय बन गया है वे भय के लिये योगी बनने के लिये हर एक मनुष्य-पुरुष कारण के बिना ही भय से कॉपते रहते है । ईसा यात्रीको प्रगल करना चाहिये।

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