Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ एकाड 12०७ । १६५ -- - - - न् बेस्वाद भोजन भी करो पर वेस्वाद भोजन को देखकर माई को जो प्रसन्नता होती है पुन्नी को अपना धर्म न समझो, सिर्फ अभ्यास समझो। देखकर पिता को जो प्रसन्नता होती है वह प्रस. प्रकृति ने जो कणकण में सौन्दर्य विखेर न्नता तुम्हें होना चाहिये । मो बहिन बेटी की रक्खा है, जड़ चेतन और अर्धचेतन जगत जिस तरह नारी को देखो फिर उसकी शोभा का दर्शन करो। उसे वेश्या मत समझो । पर-स्त्री को हम सौन्दर्य से चमक रहा है उसका दर्शन करो, खून पली नहीं कह सकते, फिर भी यदि उसके विषय आनन्द लूटो। पर सौन्दर्य की सेवा करो. पूजा मे मन में पलीत्व का भाव आता है तो वह करो, उसका शिकार न करो उसे हजम करने की वेश्या का ही भाव है। इस पाप से बचो। फिर या नष्ट करने की वासना दिल में न आने दो। सुन्दर बनो सुन्दर का दर्शन करो पर उसके लिय यही नीति नारी के लिये भी है। उसकी धर्म और अधे मत भूलो। दूसरो को चिढ़ाने के भी सौन्दर्योदासना परपुरुष को पिता भाई या लिये नहीं, किन्तु दूसरों को आनन्दित करने के पुत्र समझकर होना चाहिये । यह सौन्दर्योपासना, लिये और दूसरों के उसी आनन्द में स्वयं प्रानन्द यह आनन्द, यह काम, अनुचित तो है ही नहीं, का अनुभव करने के लिये सौन्दर्य की पूजा करो बल्कि पूर्ण जीवन के लिये आवश्यक है। शृंगार इसमें अधर्म नहीं है । पर अगर फेशन की मात्रा था सजावट भी बुरी चीज नहीं है। प्रकृति ने इतनी बढ़ जाय कि कर्तव्य में समय की कमी विविध वनस्पतियों से सुशोभित जो पर्वतमालाएँ मालूम होने लगे, अहंकार जगने लगे, धन से खड़ी कर रक्खी हैं, नाना वन बना रखे हैं। ऋण बढ़ जाय, या धन के लिये हाय हाय करना उनके निरन्तर दर्शन करने के लिये घर के चारो पड़े, या अन्याय करना पड़े तब यह पाप होगा। अगर फैशन हो पर स्वच्छता न हो तो भी यह तरफ वाटका लगा रवन म काइ बुराई नहा है। पाप है। अगर हम इन पापो से बचे रहें तो हम मूर्ति के द्वारा जिस प्रकार देवता के दर्शन सौन्दर्य की उपासना जीवार्थ है। करते हैं उसी प्रकार वाटिका के द्वारा प्रकृति के नर को नारी के और नारी को नर के दर्शन करें तो इसमें क्या बुराई है। सौन्दर्ग की उपासना मी निष्पाप होकर करना शृङ्गार भी प्राकृतिक सौन्दर्य की उपासना चाहिये। उसमे संयम का बाघ न टूट जाय। ही है। प्रकृति ने जो सौन्दर्य विखेर रक्खा है उसे तर और नारी में पारस्परिक आकर्षण मरकर हम पाने का प्रयत्न करते है इसी का नाम शृङ्गार प्रकृति ने अनन्त आनन्द का जो श्रोत बहाया है है। मुर्गे के सिर पर लाल लाल कलगी कैसी समें वहकर ने जाने कितने जीवन नष्ट हो गये अच्छी मालूम होती है पर हमारे सिर पर नहीं है और उससे दूर रहने की चेष्टा करक न जाने है इसलिये टोपी या साफेपर हम कलगी खोस कितने जीवन प्यास से मर गये हैं। यथवा प्यास लेते हैं। मोर के शरीर पर कैसे चमकीले छपके न सह सकन के कारण घवरा कर फिर उसो श्रोत बने हये हैं जो हमारे अपर नहीं है इसलिये मैं में वहकर नष्ट होगये है। दोनों में जीवन की इसी तरह का चमकीला कपड़ा पहिनू', यही तो सफलता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि संग्रम रूपी घाट के किनारे बैठकर सौन्दया- मौलको शृंगार है। मतलब यह कि प्रकृति के विशाल संक्षिप्त करके अपनाने का नाम श्रोत में से मर्यादित रसपान किया जाय। गार है। जब तक यह परपीड़क न हो, स्वास्थ्य नारी के सौन्दर्य को देखकर तुम्हारा चित्त नाशक न हो, तब तक इसमें कोई हानि नहीं है। प्रसन्न होता है तो कोई बुरी बात नहीं है। माँ को इसका आनन्द लेना चाहिये। यह भी काम है, देखकर बच्चे को जो प्रसन्नता होती है, बहिन को सीवार्य है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259