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संख्या बढ़ना चाहिये।
व्यक्ति समभाव के लिये दो तरह की इतना होने पर भी अमकश में जाति मावना सन रखना चाहिये । १ स्वोपमता मद रह सकता है उसको भी निमल करना र चिकित्स्यता । चाहिये । उसका उपाय अपनी भावनाओं को स्वोपमत्ता (एमगे)- स्वोपमता का मतउदार बनाना है। जब हम पूरे सुणपूजक हो लब है दूसरे के दुख को अपने दुख के समान ऑयगे, तब हममें से पक्षपात निकल जायगा। समझना । जिस काम से हमे दुःस होता है उस जातिमद के निकलने पर सर्वजातिसमभाव के से दूसरो को भी होता है इसलिये वह काम नहीं पैदा होने पर मनुष्य में सहयोग कहेगा, अनाव- करना चाहिये यह वोपनता भावना है। कर्तव्या. श्यक झगड़े नष्ट होने से शान्ति मिलेगी. श कर्नव्य निर्णय के लिये वह भावना बहुत 3की वचत होगी, प्रगति होगी। आज मनुष्य योगी है। की जो शक्ति एक दूसरे के मक्षण मे तथा आत्म- चिकित्स्यता ( थिचगेरो)- चिकित्स्यता का रक्षण में खर्च होती है, वह मनुष्यजाति के दुःख मतलब है पापी का बोगर समझकर दया करना, दूर करने में जायगी। उस शक्ति के द्वारा वह उसको दंड देने की अपेक्षा सुधार करने की चेष्टा अचान क रहस्यों को जानकर उनका सदुपयोग करना, अगर क्षमा करने का उस पर अच्छा कर सकगा। इसलिये हर तरह से मनुष्यजाति प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो तो उसे क्षमा की एकता के लिये प्रयत्न करना चाहिये। यह करना । पूर्ण जातिसमभाव योगी का तीसरा चिह्न है। प्रश्न-अगर मनुष्य सब जीवो को स्वोपम
__ समझने लगे तब वो उसका जीना मुश्किल हो ४ व्यक्ति-समभाव (सम सम्मभावो) लाय क्योंकि वनस्पति आदि के असंख्य प्राणियो
संयम, ईमानगरी, और सामाजिक सुन- का नाश किये बिना वह जीवित नहीं रह सकता वस्था की जड़ है व्यक्ति-सममाय 1 जगत में जितने उनको स्त्रोपम-अपने समान-समझने से कैसे काम पाप होते हैं वे सिर्फ इसलिये कि मनुष्य अपने चलेगा ? स्वार्थ को मर्यादा से अधिक मुख्यता देता है उत्तर-ध्येयष्टि अध्याय में अधिक से
और दूसरों के स्वार्थ को मानन से अधिक गौण अधिक प्राणियों के अधिक से अधिक सुख का बनाता है । हिंसा इसलिये करता है कि दुनिया वर्णन किया गया है, वोपमता का विचार करते भले ही मरे हम जीवित रहना चाहिये, मूल इस- समय उस ध्येय को न भुलाना चाहिये उसमें निये बोलता है कि दुनिया भले ही ठगी माय चैतन्य की मात्रा का विचार करके प्रात्मरक्षा के हमारा काम बनना चाहिये, इसी प्रकार सारे लिये काफी गुआइश बदाई गई है। पापी की जड़ यही स्वार्थान्धता है। व्यक्ति-सम... प्रश्न-जहा चैतन्य की मात्रा में विषमता भाव में मनुष्य अपने स्वार्थ के समान जगत के है वहाँ ध्येय दृष्टि का उक्त सिद्धात काम आ स्वार्थ का मो खयाल रखता है इसलिये उसका जायगा पर मनुष्यो मनुष्यों में भी स्वोरमता का जीवन स्यपरसुखवक्रि और निष्पाप होता है। विचार नहीं किया जासकता। एक न्यायाधीश
धेयष्टि अध्याय में बताया गया है कि अगर यह सोचने लगे कि अगर मैं चोर के स्थान विश्वसुखवर्धन जीवन का ध्येय है। इस ध्येय की पर होता तो मैं भी चाहता कि मुझे दंड न मिले पूनि शक्ति समभाव के विना नहीं हो सकती इसलिये चोर को दंड न देना चाहिये । इस प्रकार इसलिये उस धेय के अनुकूल व्यक्ति-ससमाव की उदारता से पापियों की वन आयगी । जगत शत्यावश्यक है।
में पाप निरंकुश हो जायेंगे।