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सत्यामृत
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आमा मर नहीं सकता इसलिये हिंसा अहिंसा कहता है उसका पृथक अस्तित्व मिट जाता है, का विचार व्यर्थ है, ऐसी हालत में दर्शनशास्त्र कोई कहता है सदा के लिये ईश्वर के पास पहुँच की दृष्टि में आत्मवाद सत्य होने पर भी धर्मशास्त्र जाता है, कोई कहता है मुक्ति नित्य नहीं है जीप की दृष्टि में असत्य हो जायगा। आत्मवाद के यहा से लौट आता है, इस प्रकार नाना मत हैं। विषय में दर्शनशास्त्र बदलता रहे तो भी धर्म. धर्मशास्त्र इस विषय में बिल्कुल तटस्थ है। धर्म
शास्त्र न बदलेगा उसकी दृष्टि पुरवपाए को सार्थ- शास्त्र के लिये तो स्वर्ग नरक मोक्ष आदि का कता पर है। यही आत्मवाद के विषय में धर्म- इतना ही अर्थ है कि पुण्य-पाप अच्छे-बुरे कार्यों शास्त्र और दर्शनशास्त्र की जुदाई है। का फल अवश्य मिलता है। जिसने इस बात पर ___ सजिवाद ( पुमिंगवादो )-सन हो विश्वास कर लिया फिर मुक्ति पर विश्वास किया सकता है या नहीं, या हो सकता है तो कैसा हो या न किया, उसको धर्मशास्त्र मिथ्या नहीं कहता। सकता है दर्शनशास्त्र के इस विषय मे अनेक मत हो सकते हैं और हैं, पर धर्मशास्त्र को इससे धर्म क्या करेगा ? मुक्ति हो या न हो, पर मुक्त कोई मतलब नहीं । धर्मशास्त्र तो सिर्फ यही का आकर्षण तो नष्ट न होना चाहिये। चाहता है कि मनुष्य नैतिक नियमो पर पूर्ण उत्तर--मुक्ति पर विश्वास होना चित्त है विश्वास करे और तदनुसार पले । अब इसके
अब इसक्र उसमें कोई बुराई नहीं है, पर इसके लिये बुद्धि के लिये बहुदशी सर्वज्ञ माना आय या श्रेष्ठ विद्वारों में हथकड़ी नहीं डाली जासकती, बुद्धि ता सर्वज्ञ माना जाय, धर्मशास्त्र इसमे कुछ आपत्ति
अपना काम करेगी ही, इसलिये अगर किसी को न करेगा । सिर्फ सर्वहता के उस रूप पर आपत्ति शक्ति तर्कसंगत न मालूम हुई तो इसीलिये उसे करेगा जो धर्मसमभाव का विघातक है और न छोड देना चाहिये, न छोड़ने की जरूरत विकास का रोकनेवाला है। इस सर्ववाद के विषय में दर्शनशास्त्र परस्पर में जितना विरोधी
स्वाद के है। स्वर्ग की मान्यता से भी या परलोक की
ना से भी धर्म के लिये आकर्षण रह है उतना धर्मशास्त्र नहीं है। कोई सर्वज्ञ माने या सफता है। न माने यदि नैतिक नियमो की प्रामाणिक्ता में उसका विश्वास है तो धर्मशास्त्र की दृष्टि से उसने जीवनोत्सर्ग क्यों करेगा
प्रश्न-परिमित सुख की आशा में मनुष्य सर्वज्ञ विषयक सस्य पा लिया। पर दर्शनशास्त्र इस बात पर उपेक्षा करता है। वह तो सर्वज्ञता
उत्तर- मनुष्य सरीखा हिसाधी प्राणी दिनक रूप का वध्य जानना चाहना है। यही इन रात जितने लाम से सन्तुष्ट रहता है स्वर्ग में धोनों में अन्तर है।
उससे कहीं अधिक लाभ है। मनुष्य यह जानता मुक्तिवाद जिन्नोवादो ) मुक्तिवाटक विषय है कि अच्छी रोटी खाने पर भी शामको फिर म भी दर्शनशास्त्र में अनेक मन है। कोई माता भूरस लगेगी फिर भी रोटी खाता है और उस हे मुक्ति में आत्मा अनन्त ज्ञान अनन्त सख में रोटी के लिये दुनिया भर की विपदा मोल लेता लीन अनन्त काल तक रहता है. कोई कहना है है। मनुष्य दिनगन फोहू के चैन की तरह पर वहा ज्ञान भौर सुग्व नहीं रहता उसके विशेष और बाजार में चक्कर काटता है और सब तरह गुण नष्ट हो जाते हैं, कोई कहता है मुक्ति में की परेशानियाँ उठाना है तब वह स्वर्ग के लिये आत्मा का नाश हो जाता है, कोई कहता है वहा नह हठ करके क्यों बैठ जायगा कि मैं तो नमी विना इन्द्रियों के सत्र भोगों को भोगता है, कोई धर्म करूगा जब मुझे मोक्ष मिलेगा. स्वर्ग के